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Svayambhūstotra
होता है। यह जगत् इस तरह का है ऐसा भगवान् श्री अभिनन्दननाथ ने ज्ञान कराया है।
By constantly feeding the body to subdue inflictions like hunger, and by indulging in transient pleasures of the senses, neither the body nor the soul remains unscathed. Such deeds thus benefit neither the body nor the soul; O Lord Abhinandananatha, you had thus expounded the true nature of reality.
जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्धदोषतो भयादकार्येष्विह न प्रवर्तते । इहाप्यमुत्राप्यनुबन्धदोषवित् कथं सुखे संसजतीति चाब्रवीत् ॥
(4-4-19)
सामान्यार्थ अत्यन्त विषयलोलुपी हुआ मानव भी अत्यधिक आसक्ति के दोष से व शासन आदि के भय से इस लोक में न करने योग्य खोटे कार्यों (चोरी, परस्त्रीगमन आदि) में प्रवृत्ति नहीं करता है। फिर इस लोक में तथा परलोक में दोनों ही जगह विषय आसक्ति के दोष को जानने वाला ज्ञानी जीव किस तरह इस विषय सुख में आसक्ति करेगा? ऐसा भी आपने उपदेश किया है।
You had also expounded that even an obsessive man exercises restraint while indulging in improper behaviour as per his idea of the associated evil and the fear of the societal norms. How can a man who is knowledgeable about the miseries such behaviour causes in this life and the life beyond succumb to sense-driven inclinations?
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