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________________ जन्मतिथि, जन्मभूमि, चिह्न, वर्ण, गणधर, संहनन-संस्थान, गृह-प्रसंग आदि कुछ भी इसमें नहीं है। मात्र तत्त्वज्ञान ही तत्त्वज्ञान है और मात्र उसी के द्वारा भगवान की अद्भुत स्तुति होती चली गई है। अभिप्राय यही है कि बस एक ही रास्ता है - तत्त्व (वस्तुस्वरूप) को समझो और तदनुरूप आचरण करो, सुखी हो जाओगे। आज तक सब इसी उपाय से सुखी हुये हैं और आगे भी जो सुखी होंगे वे सब एक इसी उपाय से होंगे। अन्य कोई उपाय नहीं है। संभव ही नहीं है। रोने-गिड़गिड़ाने से कुछ होने वाला नहीं है। कोई किसी को सुख-शांति भेंट में नहीं दे सकता। स्वयं पुरुषार्थ करो। स्वयम्भूस्तोत्र का तो नाम ही अपने अन्दर सम्पूर्ण द्वादशांग का सार समेटे हुए है, जिसे समझने का प्रयास हमें अवश्य करना चाहिए। वैसे तो 'स्वयम्भू' शब्द तीर्थंकर का पर्यायवाची है, परन्तु फिर भी इसकी व्यंजना बड़ी गहरी है। यदि 'प्रवचनसार' गाथा 16 की भाषा में कहा जाए तो लोक के सभी पदार्थ 'स्वयम्भू' हैं। जो 'स्वयम्भू' को जान-पहचान लेते हैं वे स्वयं भी ‘स्वयम्भू' हो जाते हैं। स्वयम्भूस्तोत्र को पढ़कर आचार्य नरेन्द्रसेन (सिद्धान्तसारसंग्रहः) के कथन का स्मरण हो आता है कि आचार्य समन्तभद्र के वचनों की प्राप्ति मनुष्य-भव के समान अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि दुनिया में अपरंपार स्तुति-साहित्य है, पर स्वयम्भूस्तोत्र तो किसी महाभाग्यशाली विरले जीव को ही मिलता है। हमें मिला है, अतः हम इस स्वयम्भूस्तोत्र को गम्भीरतापूर्वक पढ़ें-समझें और आत्मसात् करें - यही मंगलकामना है। अक्टूबर 2014, नई दिल्ली प्रो. (डॉ.) वीरसागर जैन
SR No.007721
Book TitleSwayambhustotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay K Jain
PublisherVikalp
Publication Year2015
Total Pages246
LanguageEnglish, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size3 MB
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