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तब उसने भेरीरक्षक को हजार सुवर्ण मुद्राओं का प्रलोभन देकर भेरी का कुछ अंश माँगा । लोभवश रक्षक ने वैसा कर लिया और भेरी के कटे भाग में दूसरे चन्दन का थिग्गल लगवा दिया । इसी प्रकार कुछ और व्यक्ति भेरीरक्षक के पास आये और उसने धन के लोभ में थोड़ा-थोड़ा हिस्सा काटकर दे दिया तथा स्थान-स्थान पर दूसरे चन्दन के थिग्गल लगवा दिये ।
छह महीने बाद नियत समय पर श्रीकृष्ण ने भेरी मँगाई और व्याधियों की उपशान्ति के लिए उसे बजाना प्रारम्भ किया । भेरी तो बजी पर व्याधियों की उपशान्ति नहीं हुई । श्रीकृष्ण ने इस रहस्य को जानने की कोशिश की तब रक्षक की अप्रामाणिकता स्पष्ट हो गई । थिग्गल लगवाने का इतिहास जानकर श्रीकृष्ण ने उस भेरीरक्षक को दण्डित किया ।
श्रीकृष्ण ने पुनः देवाराधना करके दूसरी भेरी प्राप्त की और दूसरा रक्षक नियुक्त किया। वह रक्षक बहुत ईमानदार था अतः प्रयत्नपूर्वक भेरी की रक्षा में सजग रहता ।
तात्पर्य यह है कि जो शिष्य गुरु से प्राप्त श्रुत में अन्यतीर्थिकों से प्राप्त श्रुत के थिग्गल जोड़कर उसे जर्जरित करता है, वह शिष्य अयोग्य होता है और श्रुत की यथावत् सुरक्षा करने वाला शिष्य द्वितीय भेरीरक्षक की भाँति योग्य होता है । अव्यत्याम्रेडित का आशय मूल रूप में स्थित श्रुत है । जो आगम गणधरों के द्वारा जिस रूप में रचित है, उसका उसी रूप में पाठ होना चाहिए। (विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ८५५ )
(१४) पडिपुण्णं (प्रतिपूर्ण) - बिन्दु, मात्रा छन्द आदि में हीन या अधिक न हों।
(१५) पडिपुण्णघोसं ( प्रतिपूर्णघोष ) - सूत्र के पुनरावर्तन के समय लघु, गुरु तथा उदात्त आदि घोषों से युक्त उच्चारण करना।
(१६) कंठोट्ठविप्यमुक्कं ( कण्ठोष्टविप्रमुक्त) - S होठ । कण्ठ व होठ से स्पष्ट उच्चारण करना।
) - शब्द उच्चारण के दो मुख्य अंग हैं- कण्ठ और
(१७) गुरुवायणोवयं ( गुरु वाचनोपगत ) - गुरु की वाचना से प्राप्त । गुरु दूसरों को वाचना देते हों तब उसे छिपकर सुनना या स्वयं ही पढ़ा हुआ शास्त्र गुरु वाचनोपगत नहीं होता । प्राचीन समय में प्रत्येक शास्त्र की वाचना विधिपूर्वक गुरुजनों से प्राप्त की जाती थी ।
सूत्र के अन्त में एक सबसे महत्त्वपूर्ण बात कही है कि इन १७ दोषों से रहित आवश्यक का पूर्ण शुद्ध रीति से उच्चारण, परावर्तन करने पर भी वह द्रव्य आवश्यक क्यों है ? इसके उत्तर में कहा है- अणुवेक्खा उसमें अनुप्रेक्षा नहीं है । जिस प्रकार लौह- पिण्ड को तपाने पर वह अग्निमय बन जाता है, उसी प्रकार सूत्र अर्थ के चिन्तन से वह आत्म-शुद्धि प्रदाता बन जाता है। ऐसे चिन्तन आदि में तन्मय हो जाना अनुप्रेक्षा है । " तप्तायसपिण्डवदर्पितचेतसो मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा ।” (तत्त्वार्थ वार्तिक ९ / २५)
आवश्यक प्रकरण
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