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(१०) अव्वाइद्धक्खरं (अव्याविद्धाक्षर)-सूत्र के अक्षर आगे-पीछे करके पाठ करना व्याविद्धाक्षर दोष है। उससे रहित सूत्र का अक्षर पाठ।
(११) अक्खलियं (अस्खलित)-जैसे पथरीली भूमि पर हल बीच-बीच में रुक-रुककर चलता है, वैसे ही रुक-रुककर अथवा अक्षरों को छोड़कर शब्द का उच्चारण करने से उसका अर्थ समझ में नहीं आ सकता। अतः सूत्र का उच्चारण अस्खलित होना चाहिए।
(१२) अमिलियं (अमीलित)-अनेक सूत्रों को मिलाकर एक साथ उच्चारण करना मीलित दोष है, जैसे अनेक प्रकार के धान्य मिलाकर पकाने से भली प्रकार नहीं पकते। अमीलित दोष पर निम्न उदाहरण ध्यान देने योग्य हैं
(४) कुछ तंतुवाय जुलाहे मिलकर गोकुल में गये। वहाँ खीर बनाने का निश्चय किया। खीर के लिए बहुत-सा दूध उबाल लिया। फिर सोचा-'इस उबलते दूध में कुछ भी डाला जाये तो खीर बन जायेगी।' यह सोचकर चावल, चौला, मूंग, तिल आदि सब कुछ उसमें डाल दिया। परिणाम यह हुआ कि खीर की जगह भूसा बन गया, जिसका कोई उपयोग नहीं हुआ। ठीक इसी प्रकार एक आगम के सूत्रों में दूसरे आगम का मिश्रण होने से वह किसी भी काम का उपयोगी नहीं रहता।
(१३) अवच्चामेलियं (अव्यत्यानेडित)-इसके दो अर्थ हैं-सूत्र-पाठ उच्चारण करते समय जहाँ विराम लेना हो वहाँ विराम नहीं लेना और जहाँ विराम नहीं लेना हो वहाँ विराम लेना तथा बीच-बीच में अपनी बुद्धि से कल्पित सूत्रों का प्रक्षेप करके पढ़ना अव्यत्यानेडित दोष है। वृत्तिकार ने दो दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट किया हैअव्यत्यामेडित दोष पर भेरी कथा
(५) द्वारिका नगरी में महाराज श्रीकृष्ण राज्य करते थे। उनके पास देवता द्वारा दी हुई तीन भेरियाँ थीं-कौमुदकी, सांग्रामिकी और औद्भुतिकी। कौमुदी उत्सव की सूचना के लिए पहली, संग्राम की सूचना के लिए दूसरी और आकस्मिक प्रयोजन को सूचित करने के लिए तीसरी भेरी बजाई जाती थी।
श्रीकृष्ण के पास देव-प्रदत्त श्रीखण्ड गोशीर्षमयी एक भेरी और थी जो छह महीने में एक बार बजाई जाती थी। इस भेरी का शब्द सुनने वालों के छह मास का रोग आदि उपशान्त हो जाता और अनागत छह मास तक रोग उत्पन्न नहीं होता था।
एक दिन दाह-ज्वर से पीड़ित कोई व्यक्ति आया। उसने भेरी बजाने का समय पूछा तो भेरी रक्षक ने कहा-“अब तो छह महीने पश्चात् भेरी बजेगी। वह श्रीकृष्ण ही बजा सकेंगे।" अनुयोगद्वार सूत्र
( 36 ) Illustrated Anuyogadvar Sutra
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