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________________ विवेचन-सूत्र १०८ में आनुपूर्वी आदि द्रव्यों के क्षेत्र विषयक पाँच प्रश्नों के उत्तर दिये हैं। यह पूर्व में बताया जा चुका है कि कम से कम त्रिप्रदेशी स्कन्ध आनुपूर्वीद्रव्य है तथा द्विप्रदेशी स्कन्ध अवक्तव्य और परमाणु अनानुपूर्वी द्रव्य हैं। त्र्यणुक आदि का व्यवहार पुद्गलद्रव्य में ही होता है। अतएव पुद्गलद्रव्य का आधार यद्यपि सामान्य रूप से तो लोकाकाश क्षेत्र नियत है। परन्तु विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पुद्गलद्रव्यों के आधार क्षेत्र के परिमाण में अन्तर होता है। आधारभूत क्षेत्र के प्रदेशों की संख्या आधेयभूत पुद्गलद्रव्य के परमाणुओं की संख्या से न्यून या उसके बराबर हो सकती है, अधिक नहीं। इसलिए एक परमाणु रूप अनानुपूर्वीद्रव्य आकाश के एक ही प्रदेश में रहता है परन्तु द्विप्रदेशी एक प्रदेश में भी रह सकता है और दो प्रदेशों में भी। इसी प्रकार उत्तरोत्तर संख्या बढ़ते-बढ़ते त्रिप्रदेशी, चतुष्प्रदेशी यावत् संख्यातप्रदेशी स्कन्ध एक प्रदेश, दो प्रदेश, तीन प्रदेश यावत् संख्यात प्रदेशरूप क्षेत्र में ठहर सकते हैं। संख्यातप्रदेशी द्रव्य की स्थिति के लिए असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र की आवश्यकता नहीं रहती है। इसी प्रकार असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध एक प्रदेश से लेकर अधिक से अधिक अपने बराबर के असंख्यात संख्या वाले प्रदेश क्षेत्र में ठहर सकता है। किन्तु अनन्तप्रदेशी और अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में यह जानना चाहिए कि वह एक प्रदेश, दो प्रदेश इत्यादि क्रम से बढ़ते-बढ़ते संख्यात प्रदेश और असंख्यात प्रदेश वाले क्षेत्र में ठहर सकते हैं। उनकी अवस्थिति के लिए अनन्त प्रदेशात्मक क्षेत्र की जरूरत नहीं है। पुद्गलद्रव्य का सबसे बड़ा स्कन्ध, जिसे अचित्त महास्कन्ध कहते हैं और जो अनन्तानन्त अणुओं का बना होता है, वह भी असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में ही ठहर जाता है। लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही हैं और उससे बाहर पुद्गल की अवगाहना सम्भव नहीं है। उपर्युक्त समग्र कथन आनुपूर्वी आदि एक-एक द्रव्य की अपेक्षा से समझना चाहिए। किन्तु अनेक की अपेक्षा इन समस्त द्रव्यों का अवगाहन समस्त लोकाकाश में है। ___ अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं से निष्पन्न अचित्त महास्कन्धरूप आनुपूर्वीद्रव्य के एक समय में समस्त लोक में अवगाढ़ रहने को केवलीसमुद्घात के चतुर्थ समयवर्ती आत्मप्रदेशों के सर्वलोक में व्याप्त होने के उदाहरण से समझना चाहिए। जो इस प्रकार है अचित्त महास्कन्ध एक समय में सकल लोकव्यापी कैसे होता है। इस विषय में टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र प्रज्ञापना सूत्र का सन्दर्भ देते हुए लिखते हैं-अचित्त महा स्कन्ध सम्पूर्ण लोक व्यापी, स्वाभाविक परिणमन वाला होता है। वह तिरछे लोक के असंख्य योजन विस्तृत अनियत काल (आठ समय) की स्थिति वाला वृत्त ऊँचे नीचे लोक में चौदह रज्जु परिमाण (एकरज्जु, वह दूरी है जो कोई देव छह माह तक २,०५७,१५२ योजन प्रति सेकेन्ड की गति से निरन्तर चलकर तय करता है) सूक्ष्म पुद्गलों के परिणाम से परिणत होता है। प्रथम समय में उसकी आकृति दण्डाकार, द्वितीय समय में कपाटाकार, तृतीय समय में मंथनी के आकार आनुपूर्वी प्रकरण ( १७५ ) The Discussion on Anupurvi Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007655
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2001
Total Pages520
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_anuyogdwar
File Size18 MB
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