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(1) Samayik, (2) Chaturvimshatistav, (3) Vandana, (4) Pratikraman, (5) Kayotsarg, and vi. Pratyakhyan.
विवेचन-आवश्यक का अर्थाधिकार से मतलब है आवश्यक का प्रतिपाद्य विषय। सूत्र ७४ में आवश्यक के छह अध्ययनों के नाम बताये हैं और सूत्र ७३ में उनके प्रतिपाद्य विषय का कथन है। इस प्रकार दोनों सूत्र परस्पर सम्बद्ध हैं। पहले आवश्यक के प्रतिपाद्य का कथन किया जाता है
(१) सावद्ययोग विरति-आवश्यक का प्रथम अध्ययन है सामायिक। इस सामायिक अध्ययन का विषय हैं-सावध योगों से विरति। हिंसा, असत्य आदि पापकारी प्रवृत्तियाँ सावद्ययोग हैं, इन प्रवृत्तियों से निवृत्त होना सावद्ययोग विरति है। एक प्रकार से प्रथम सामायिक आवश्यक का यही उद्देश्य है, यही उसका प्रतिपाद्य है।
(२) उत्कीर्तन-स्वयं सर्व सावद्ययोगों से विरति करने वाले तथा विरति रूप धर्म का उपदेश देने वाले तीर्थंकर आदि सद्गुणी पुरुषों के गुणों का कीर्तन (कथन) करना उत्कीर्तन है। दूसरा अध्ययन है, चतुर्विंशतिस्तव। इसमें चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन है। इससे सम्यक्त्व रूप दर्शन की विशुद्धि होती है तथा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय होता है।
(३) गुणवत् प्रतिपत्ति-'गुण' से अभिप्राय है पाँच महाव्रत रूप, मूलगुण तथा क्षमा आदि उत्तरगुणों को धारण करने वाले गुणी पुरुषों की प्रतिपत्ति-बहुमान-वंदना। वन्दना तीसरे वन्दना आवश्यक का विषय है। आवश्यक नियुक्ति (११२८) के अनुसार दीक्षा और आयु में ज्येष्ठ पुरुषों का यथायोग्य बहुमान करना गुणवत् प्रतिपत्ति है।
(४) स्खलित निन्दा-आवश्यक के चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण में स्खलित अर्थात् दोषों की निन्दा की जाती है। अरिहंत देव द्वारा प्ररूपित साधना के नियमों व मर्यादाओं का अतिक्रमण करना स्खलना है। अतिक्रमण से वापस लौटना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण मुख्यतः चार विषयों का किया जाता है
(१) निषिद्ध कार्य करना, (२) विहित कार्य न करना, (३) मोक्ष के साधनों में अश्रद्धा करना, तथा (४) विपरीत प्ररूपणा करना।
(५) व्रण चिकित्सा-पाँचवें कायोत्सर्ग नामक अध्ययन का मुख्य विषय है व्रण चिकित्सा। शरीर में घाव हो जाने पर मलहम ऑपरेशन आदि से उसकी चिकित्सा करके शरीर को रोगमुक्त रखा जाता है। उसी प्रकार संयम में दोष लगने पर उसकी शुद्धि हेतु कायोत्सर्ग किया जाता है। आचार्यों ने उपमा द्वारा बताया है-चारित्र पुरुष शरीर रूप है। चारित्र का नाश करने वाली क्रियाएँ उभरे व्रण के समान हैं, दस प्रकार के प्रायश्चित्त, शरीर व्युत्सर्ग (ध्यान) १२ अनुप्रेक्षा-भावना आदि के द्वारा उन घावों की चिकित्सा करना व्रण चिकित्सा है। भावश्यक अर्थाधिकार प्रकरण
( ११३ ) The Discussion on Purview of Avashyak
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