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Then he cut it into three, four upto many pieces but in spite of carefully seeing them, he could not see fire there.
(ग) तए णं से पुरिसे तंसि कटुंसि दुहाफालिए वा जाव संखेज्जफालिए वा जोई अपासमाणे संते तंते परिसंते निव्विण्णे समाणे परसुं एगंते एडेड, परियरं मुयइ एवं वयासी - अहो ! मए तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिए त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पे चिंत्तासोगसागरसंपविट्टे करयलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए भूमिगयदिट्टिए झियाइ ।
(ग) जब उस पुरुष को काष्ठ के दो से लेकर अनेक टुकडे करने पर भी कहीं आग दिखाई नहीं दी तो वह श्रम से थक गया । क्लान्त, खिन्न और दुःखित हो गया, कुल्हाड़ी को एक ओर रखा। कमर को खोलकर मन ही मन इस प्रकार बोला- 'अरे ! मैं उन लोगों के लिए भोजन नहीं बना सका। अब क्या करूँ ?' इस विचार से अत्यन्त निराश, दुःखी, चिन्तित, शोकातुर हो हथेली पर मुँह को टिकाकर आर्त्तध्यानपूर्वक नीचे जमीन में आँखें डाकर चिन्ता में डूब गया ।
(c) When that person did not find even after cutting the wooden stick into two, three, four and many pieces, he felt tired due to hard work. He felt tired, dejected and morose. He kept the axe on one side. After loosening the waist-cloth, he spoke to himself 'O, I have not been able to prepare food for my men. What should I do now?' With these thoughts, he felt extremely dejected, sad, worrily brooding and then placing his hand palm on his face, he absorbed himself in miserable thinking posture keeping his eyes downwards deep in the earth.
(घ) तए णं ते पुरिसा कट्ठाई छिंदंति, जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छंति । तं पुरिसं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति एवं वयासी - किं णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहमणसंक जाव झियायसि ?
तणं से पुरिसे एवं वयासी - तुज्झे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अडविं अणुपविसमाणा ममं एवं वयासी - अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अडविं जाव पविट्ठा, तए णं अहं तत्तो मुहुत्तंतरस्स तुज्झं असणं साहेमि त्ति कट्टु जेणेव जोइभायणे जाव झियामि ।
(घ) वन मे लकडियों को काटने के पश्चात् वे लोग जहाँ अपना साथी था, वहाँ आये और उसको निराश, दुःखी यावत् चिन्ता में डूबा देखकर पूछा - "देवानुप्रिय ! तुम निराश, दुःखी यावत् चिन्ता में डूबे हुए क्यों बैठो हो ?”
रायपसेणियसूत्र
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Rai-paseniya Sutra
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