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________________ a जीव और शरीर की अभिन्नता की परीक्षा __२४८. तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी ___ अत्थि णं भंते ! एस पण्णा उवमा, इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छति, एवं ढालु ी भंते ! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अणेग गणणायक-दंडणायग राय-ईसर-तलवर-माइंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-मंतिमहामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगम-दूय-संधिवालेहिं सद्धिं संपरिवुडे विहरामि। तए णं मम णगरगुत्तिया ससक्खं सलोइं सगेवेज्जं * अवउडबंधणबद्धं चोरं उवणेति।। तए णं अहं तं पुरिसं जीवंतं चेव अउकुंभीए पक्खिवावेमि, अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि, अएण य तउएण य आयावेमि, आयपच्चइयएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि। तए णं अहं अण्णया कयाइं जेणामेव सा अउकुंभी तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता तं अउकुंभिं उग्गलच्छावेमि, उग्गलच्छावित्ता तं पुरिसं सयमेव पासामि, णो चेव णं तीसे अयकुंभीए केइ छिड्डे इ वा विवरे इ वा अंतरे इ वा राई वा जओ णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए। जइ णं भंते ! तीसे अउकुंभीए होज्जा केई छिड्डे वा जाव राई वा जओ णं से जीवे ॐ अंतोहिंतो बहिया णिग्गए, तो णं अहं सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा, जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं, जम्हा णं भंते ! तीसे अउकुंभीए णत्थि केइ छिड्डे वा जाव निग्गए, तम्हा सुपतिट्ठिया मे पइन्ना जहा-तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं। २४८. केशीकुमार श्रमण के उत्तर को सुनकर राजा प्रदेशी ने इस प्रकार कहा "हे भदन्त ! जीव और शरीर की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए आपने देवों के नहीं आने के कारण रूप में जो उपमा दी, वह तो बुद्धि से कल्पित एक दृष्टान्त मात्र है, परन्तु भदन्त ! (मैं अपने प्रत्यक्ष अनुभव की बात बताता हूँ) किसी एक दिन मैं अपने अनेक गणनायक, दंडनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, मांडविक, कौटुम्बिक, इब्भ, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, मत्री, महामंत्री, गणक-(ज्योतिषशास्त्रवेत्ता), दौवारिक (राजसभा का रक्षक), अमात्य, चेट (सेवक), पीठमर्दक-(सदा पास रहने वाला सेवक), नागरिक, व्यापारी, दूत, सधिपाल आदि के साथ अपनी बाह्य उपस्थानशाला-(सभाभवन) में बैठा हुआ था। उसी ANDAOARODAROSARODARODO * * * whikariKHABAR केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा (339) Keshu Kumar Shraman and King PradeshhTER D * * * * XN * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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