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________________ PROM (२) दूसरा कारण है, स्वर्ग मे जाने के बाद सामान्य रूप मे मनुष्य-जन्म सम्बन्धी मित्रों, सम्बन्धियो से स्नेह का सूत्र टूट जाता है। वह सोचता है, पिछले जन्मो के किन-किन रिश्तेदारो को स्मरण करे और हर किन-किन की सहायता करे, क्योकि उसके ज्ञान मे तो पिछले अनेक जन्मो की स्मृति रहती है, यदि उन र सब जन्मो के मित्र-सम्बन्धियो को याद करे तो व्यर्थ ही परेशान होकर अपने सुखो को छोडना पडेगा। इस कारण उनके स्नेह और प्रेम का सूत्र ढीला पड़ जाता है या टूट ही जाता है और वे उनको भुला देते है। बहुत बार वचन दिया हुआ भी याद नही रखते और उसे भी पूरा नही कर पाते। (३) तीसरा कारण है, स्वर्ग में उत्पन्न होते ही वहाँ के सुखो मे, वहाँ के दिव्य नृत्य-सगीत आदि मे इतने मस्त हो जाते है कि बीच मे छोडकर उठ नहीं सकते, सोचते है, यह नाटक खत्म होते ही मै जाऊँगा, परन्तु देवताओ का एक-एक नाटक भी इतने लम्बे समय तक चलता है कि तब तक मनुष्यो की कई पीढियाँ बीत जाती है। जिनको वचन देकर जाते है या जिनको सहायता करने की भावना रखते है, उनके a लिए आते है, तब तक तो वे मित्रजन आयुष्य पूर्ण कर कही दूसरी योनि मे ही चले जाते है। (४) चौथा कारण है, मनुष्यलोक की दुर्गध। मनुष्यलोक औदारिक पुद्गलो का समूह है, यहाँ के * हाड-मॉस, मल-मूत्र आदि की दुर्गध इतनी भयकर है कि ऊपर योजनो तक उसकी दूषित हवा जाती * है। स्वर्ग में रहने वाले देवो के लिए इस प्रकार की दुर्गंध असह्य होती है। वे आना चाहते है, परन्तु इस दुर्गध से घबराकर आने का विचार बदल देते है। इस सूत्र मे मनुष्यलोक सम्बन्धी दुर्गध ऊपर आकाश मे चार-पाँच सौ योजन तक पहुँचने का उल्लेख किया है, जबकि आगमो की मान्यता यह है कि नौ योजन से अधिक दूर से आते गध वाले पुद्गल घ्राणेन्द्रिय के विषय नही हो सकते है। यहॉ विचारणीय है कि उक्त उल्लेख के साथ इस शास्त्रीय उल्लेख से किस प्रकार सगति बैठ सकती है ? क्योकि नौ योजन से अधिक दूर से जो पुद्गल आते है उनकी ॐ गध अत्यन्त मद हो जाती है, जिससे वे घ्राणेन्द्रिय के विषय नहीं हो सकते है। ॐ टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इसका समाधान करते हुए लिखा है कि “यद्यपि नियम तो ऐसा ही है किन्तु जो पुद्गल अति उत्कट गध वाले होते है, उनके नौ योजन तक पहुंचने पर जो दूसरे पुद्गल * उनसे मिलते है, उनमे अपनी गन्ध सक्रान्त कर देते है और फिर वे पुद्गल भी आगे जाकर दूसरे पुद्गलो * को अपनी गध से वासित कर देते है। इस प्रकार ऊपर-ऊपर पुद्गल चार-पाँच सौ योजन तक पहुंच र जाते है। परन्तु यह बात लक्ष्य मे रखने योग्य है कि ऊपर-ऊपर वह गध मद-मद होती जाती है। मनुष्यलोक सम्बन्धी दुर्गन्ध अत्यन्त तीव्र हो तो पाँच सौ योजन तक पहुँचती है, इसीलिए शास्त्र मे चार सौ और पाँच सौ ये दो सख्याये बताई है।' स्थानाग के टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि का इस सम्बन्ध मे मतव्य है कि “इससे मनुष्य क्षेत्र के दुर्गन्धित स्वरूप को सूचित किया गया है। वस्तुत. देव अथवा दूसरा कोई नौ योजन से अधिक दूर ॐ से आगत पुद्गलो की गध जान नही सकता है। शास्त्र मे इन्द्रियो का जो विषय-प्रमाण बतलाया है, वह सम्भव है कि औदारिक शरीर सम्बन्धी इन्द्रियों की अपेक्षा कहा हो।" को स्थानांगसूत्र मे भी तत्काल उत्पन्न देव के मनुष्यलोक मे नही आने के ये ही चार कारण बताये है, साथ ही वहाँ देवता के मनुष्यलोक मे आने के भी चार कारण बताये है, जैसे DROD000000000200DATOPARODAROORDAR * SPRINTER. * रायपसेणियसूत्र (332) Rar-paseniya Sutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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