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________________ देते है। इस मान्यता वाले दर्शन को 'चार्वाक् दर्शन' भी कहा जाता है । सूत्रकृताग मे इस मान्यता का उल्लेख करते हुए बताया है "नत्थि पुण्णे व पापं वा, णत्थि लोए इओ परे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥" - सूत्रकृताग १/१/१/१२ "न पुण्य है, न ही पाप है। इस लोक से भिन्न दूसरा कोई लोक नही है । शरीर का विनाश होने पर - ( जीवदेही) का भी विनाश हो जाता है।" आत्मा (इसकी विस्तृत चर्चा सूत्रकृताग, श्रुतस्कन्ध २ में है। वहाँ हमने अनेक तर्क व युक्तियो से इस मान्यता का समाधान किया है। पाठक सूत्रकृताग, श्रुतस्कन्ध २ देखे) । प्रदेशी राजा कहता है- “मेरा दादा भी इसी विचारधारा का था ।" इससे यह पता चलता है भारत यह नास्तिक विचारधारा बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही है। भगवान महावीर के समय मे जिन छह प्रसिद्ध अन्य दार्शनिको का उल्लेख आता है उनमे एक है अजितकेश कम्बल। उसकी मान्यता भी यही थी कि शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्त्व नही है । सूत्रकृताग, द्वितीय श्रुतस्कध वृत्ति मे अजितकेश कम्बल की इस मान्यता के अनेक तर्क दिये है, उन तर्कों मे कुछ तर्क ऐसे है जिनकी चर्चा यहाँ पर प्रदेशी राजा भी करता है। अजितकेश कम्बल कहता है-" जैसे म्यान से तलवार निकालकर दिखाया जा सकता है कि यह म्यान है, यह तलवार है, उसी प्रकार शरीर से निकालकर आत्मा को अलग दिखाने वाला कोई पुरुष नही है।" जैसे हथेली मे लेकर ऑवला दिखाया जा सकता है कि यह हथेली है, यह ऑवला है, उसी प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा को बताने वाला कोई पुरुष नही है। बौद्ध साहित्य के दीघनिकाय (१/२/४/२२) मे भी अजितकेश कम्बल की इस विचारधारा की चर्चा है। सूत्र २५३ - २५४ में प्रदेशी भी यह तर्क देता है। कि तलवार से शरीर के खण्ड-खण्ड करने पर भी मुझे जीव नामक कोई भिन्न तत्त्व दिखाई नही दिया तथा सूत्र २६४ मे ऑवले को हथेली पर रखकर दिखाने का भी तर्क उक्त मान्यता के समान है। दीघनिकाय मे पायासि और कुमार काश्यप नामक श्रमण की चर्चा भी प्रायः इसी प्रकार के तर्कों पर आधारित है और कुमार काश्यप भी जो समाधान देते है वे कुमार केशी श्रमण के समाधानो से मिलते-जुलते है । इन सबसे यह पता चलता है कि उस युग मे 'जीव' और 'शरीर' एक है या भिन्न है। यह काफी चर्चा का विषय रहा था और सभी पक्षो के तर्क-वितर्क प्राय एक समान ही रहते थे । प्रदेशी राजा के प्रश्नो का केशीकुमार श्रमण ने इस प्रसंग मे बडा ही तर्कपूर्ण, युक्तिसगत समाधान किया है। जिसकी चर्चा अगले सूत्रो मे है । Elaboration-In this aphorism, king Pradeshi expresses his belief. According to his point of view Jiva (soul) and Shareer (body) are same. (they are one entity). It is not true that Jiva and Shareer are different entities. With the extinction of the body ( Shareer), the soul (Jiva) also comes to an end. In ancient philosophical literature, this philosophical thought is known as "Tajjeev-Tat Shareer Vaad'. When Gautam (the first केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा Jain Education International (315) Keshi Kumar Shraman and King Pradeshi For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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