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________________ जड्डा खलु भो ! जड्डं पज्जुवासंति। मुंडा खलु भो ! मुंडं पज्जुवासंति । मूढा खलु भो ! मूढं पज्जुवासंति | अपंडिया खलु भो ! अपंडियं पज्जुवासंति । निव्विण्णाणा खलु भो ! निब्विण्णाणं पज्जुवासंति। से केस णं एस पुरिसे जड्डे मुंडे मूढे अपंडिए निव्विण्णाणे, सिरीए हिरीए उवगए उत्तप्पसरीरे। एस णं पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? किं परिणामेइ ? किं खाइ, किं पियइ, किं दलइ, किं पयच्छइ ? जं णं एस एमहालियाए मणुस्सपरिसाए मज्झगए महया सद्देणं बूया | एवं संपेइ चित्तं सारहिं एवं वयासी चित्ता ! जड्डा खलु भो ! जड्डं पज्जुवासंति जाव बूयाए, साए वि णं उज्जाणभूमीए नो संचामि सम्मं कामं पवियरित्तए ! २३७. (राजा के 'हॉ' कहने पर ) चित्त सारथी ने मृगवन उद्यान की ओर रथ को मोडा और फिर उस स्थान पर आया जो केशीकुमार श्रमण के निवास-स्थान के पास था । वहाँ घोड को रोका, रथ को खड़ा किया, रथ से उतरा और फिर घोडो को खोलकर -छोडकर प्रदेशी राजा से कहा - "हे स्वामिन् ! हम यहाँ घोडो के श्रम और अपनी थकान को दूर कर लें।" चित्त की बात सुनकर प्रदेशी राजा रथ से नीचे उतरा और चित्त सारथी के साथ घोड़ों की थकावट और अपनी व्याकुलता को मिटाते हुए (छाया में टहलते हुए) उस ओर देखा जहाॅ केशीकुमार श्रमण अतिविशाल परिषद् के बीच बैठकर उच्च गम्भीर घोष से धर्मोपदेश कर रहे थे। यह देखकर उसे मन-ही-मन यह विचार एव सकल्प उत्पन्न हुआ 'जड (मूर्ख) ही जड की उपासना करते है ! मुड (मंद बुद्धि) ही मुड की उपासना करते है ! मूढ (बुद्धिहीन ) ही मूढो की उपासना करते है ! अपडित (अल्पज्ञानी) ही अपडित की उपासना करते है ! और अज्ञानी (अनपढ ) ही अज्ञानी की उपासना - ( उपासना - पास जाना, सगति करना, उनसे वार्त्तालाप करना और उनका सम्मान करना) करते हैं । परन्तु यह कौन पुरुष है जो जड, मुंड, मूढ, अपडित और अज्ञानी होते हुए भी श्री (दिव्यता), ह्री (प्रभाव) से सम्पन्न है, शारीरिक कांति (तेज - ओज ) से सुशोभित है ? यह पुरुष किस प्रकार का आहार करता है ? किस रूप मे खाये हुए भोजन को परिणमाता है ? यह क्या खाता है, क्या पीता है, लोगों को क्या देता है, विशेष रूप से उन्हें क्या वितरित करता है-बॉटता है-समझाता है ? यह पुरुष इतने विशाल मानव - समूह के बीच बैठकर ऐसी गम्भीर ध्वनि में जोर-जोर 'क्यो बोल रहा है ?' उसने ऐसा विचार किया और चित्त सारथी से पूछा शीकुमार श्रमण और प्रदेशी राजा Jain Education International (303) Keshi Kumar Shraman and King Pradeshi For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007653
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2002
Total Pages499
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_rajprashniya
File Size18 MB
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