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विवेचन-सूर्याभदेव भगवान महावीर के दर्शन करने के लिए अपनी समस्त देवऋद्धि व वैभव के साथ आता है और आकर अपना परिचय देकर भगवान की वन्दना करता है। भगवान इसे उसका परम्परागत आचार, व्यवहार बताकर एक प्रकार से अनुमोदन करते है, परन्तु जब वह भगवान के समक्ष अपनी उमडती भक्ति का प्रदर्शन करने के लिए अपनी ऋद्धि, वैभव, सामर्थ्य बताने के लिए नाट्य सगीत कला का सहारा लेता है और बत्तीस प्रकार के नाटक प्रदर्शित करने की अनुमति मांगता है तो भगवान उसके इस कथन का अनुमोदन या सन्मान नही करके मौन रहते है। ___ भक्ति के दो रूप हैं-एक आभ्यन्तर भक्ति, जो आराध्य के चरित्र का अथवा उसके उपदेशो का अनुसरण करने का मार्ग है। दूसरा बाह्य भक्ति। ऐसे भक्त आराध्य के आराधक नही केवल प्रशसक होते है, वे भक्ति का बाह्य प्रदर्शन करके ही सतोष मानते है। ___यदि सूर्याभदेव भक्ति मे डूबकर त्याग प्रत्याख्यान करने को तत्पर होता तो अन्य प्रसंगो की तरह
भगवान उसका अनुमोदन करते और कहते-“जहा सुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंध करेह।''- "हे देवानुप्रिय । जैसा सुख हो वैसा करो, शुभ कार्य मे विलम्ब मत करो।" किन्तु जहाँ त्याग के स्थान पर शक्ति व ऐश्वर्य के प्रदर्शन का प्रसग आता है वहाँ भगवान किसी भी भक्त को उसके प्रदर्शन की अनुमति नही देते, न ही उसकी अनुमोदना करते है, यह तथ्य यहाँ ध्यान देने योग्य है।
Elaboration—Suryabh Dev comes to Bhagavan Mahavir with his entire celestial wealth and encourage in order to see him He bows to Bhagavan and introduces himself Bhagavan accepts it as his traditioned behaviour and conduct and therefore supports his action But when, in order to exhibit his deep devotion, he mentions his celestial family, his wealth, his strength and seeks permission to present thirty two types of dramatic arts, Bhagavan Mahavir does not support his conduct and remains silent.
Two Facets of Devotion-Inner Devotion—This devotion impels one to follow the conduct and the teaching of his Lord The second one is External Devotion. Such devotees are not true followers. They just praise the Lord They remain contented just by exhibiting their devotion to the public
In case Suryabh Dev, in his deep devotion, offered himself for any restraints, Bhagavan Mahavir would have supported his conduct as he had done at other occasions. He would have said—“O the Blessed ! what pleases you Do no delay in translating noble words into action." But when instead of restraints, the request is for exhibiting strength or wealth, Bhagavan, does not grant permission for it to any devotee. He does not even support it. This fact is worth consideration.
७४. तए णं से सूरियाभे देवे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी
K
में सूर्याभ वर्ण
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Description of Suryabh Dev
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