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ॐ सभी को प्रचुर मात्रा में दूध भी मिलता रहा। इसी प्रकार जो श्रोता गुरुजनों की निःस्वार्थ + सेवा-सुश्रूषा करते हैं तथा आहार-पानी का प्रबन्ध करते हैं और फलस्वरूप गुरु से ज्ञान प्राप्त । करते हैं, वे सुपात्र होते हैं और क्षमतानुसार ज्ञान प्राप्त करने में सफल होते हैं।
(१३) भेरी-यह भी एक दृष्टान्त है-एक बार सौधर्मेन्द्र ने अपनी देव-सभा में वासुदेव E श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते हुए उनकी दो विशेषताएं बताईं-गुण-ग्राहकता और अपनी गरिमा को ॐ नहीं त्यागना। इन्द्र की सभा का एक देव श्रीकृष्ण की परीक्षा लेने के उद्देश्य से धरती पर उतरा।
उसने एक व्याधि से विगलित मृतप्राय काले श्वान का रूप धरा और उस मार्ग पर पड़ गया है
जिस पर श्रीकृष्ण जाने वाले थे। कुछ समय पश्चात् जब भगवान अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ वासुदेव ॐ श्रीकृष्ण उस मार्ग से निकले तो कुत्ते के शरीर से निकलती तीव्र दुर्गन्ध उनकी नाक में गई। है दुर्गन्ध इतनी तीव्र थी कि श्रीकृष्ण के साथ चलते सैनिकों ने मार्ग बदल दिया। कुछेक ने कपड़े से ,
नाक ढंक लिया। किन्तु श्रीकृष्ण हाड़-माँस के बने औदारिक शरीर के स्वभाव व परिणतियों के ॐ ज्ञाता थे, वे बिना किसी घृणा-भाव के कुत्ते के निकट से ही निकले और बोले-“देखो ! इस कुत्ते
के काले शरीर से झांकते सफेद, स्वच्छ और चमकते दॉत कितने सुन्दर लगते हैं मानो
कृष्णमणि के पात्र में मोतियों की माला रखी हो।” कृष्ण की इस अभिव्यक्ति से देव को कृष्ण ॐ की गुणग्राहकता के स्वभाव का पता लगा और वह मन ही मन नतमस्तक हो गया।
वहाँ से अन्तर्ध्यान हो वह देव श्रीकृष्ण की अश्वशाला से एक श्रेष्ठ अश्व लेकर भाग गया। ॐ सैनिकों ने बहुत पीछा किया पर वह हाथ न आया। अन्ततः श्रीकृष्ण स्वयं उससे अश्व छुड़ाने के 卐 गये। जब वे उसके निकट पहुंचे तो देव ने कहा-"आपको अपना अश्व छुड़ाने के लिए मुझसे 5
युद्ध करना होगा।" श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया-"युद्ध अनेक प्रकार के होते हैं-मल्ल-युद्ध,
मुष्ठि-युद्ध, असि-युद्ध आदि, तुम कौन-सा युद्ध करना चाहोगे।'' देव ने कहा-“मैं पीठ-युद्ध फ़ करना चाहता हूँ। आपकी पीठ और मेरी पीठ से युद्ध किया जाये।" श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया
“ऐसा घृणित व नीच युद्ध करना मेरी गरिमा के विरुद्ध है। मैं किसी भी मूल्य पर अपनी गरिमा
नहीं त्याग सकत। तुम यह अश्व ले जा सकते हो।" जा श्रीकृष्ण का यह उत्तर सुन देव अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हुआ और श्रीकृष्ण के चरणों
में प्रणाम कर उनकी परीक्षा लेने की बात बताई। फिर उसने श्रीकृष्ण को एक दिव्य भेरी भेंट है की और बताया-“यह रोगनाशक दिव्य भेरी है। हर छह महीने बाद इसे बजाने पर जिसके कान के 9 में भी इसकी मेघ गर्जना जैसी गम्भीर ध्वनि जायेगी उसे छह माह तक कोई रोग नहीं होगा और F पुराना रोग नष्ट हो जायेगा। इसकी ध्वनि बारह योजन तक जायेगी। सावधानी यह रहे कि न तो ॐ इसे छह माह पूर्व बजाया जाये और न इस पर लगा दिव्य लेप उतारा जाये क्योंकि उस लेप में म ही रोग शमन का गुण है।" के एक निश्चित तिथि को वह भेरी बजाई गई और देव के कथनानुसार जहाँ तक उसकी ध्वनि + गई सभी निरोग हो गये। श्रीकृष्ण ने वह भेरी अपने एक सेवक को दी और सारी विधि
समझाकर हर छठे महीने बजाने की आज्ञा दे दी। श्री नन्दीसूत्र
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