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Dushyagani except for this mention. This panegyric gives an
indication that the author of this work, Dev Vachak or Devardhigani 4 Kshamashraman was a disciple of this Dushyagani. There is a lack of 4 4 detailed information about Devardhigani also, but he was present at 5
the Vallabhi convention. This indicates that he was alive in the year 980 A.N.M. (511 V., 568 A.D.). Thus the period of activity of Dushyagani must have been the middle part of the 10th century A.N.M.
५० : जे अन्न भगवन्ते, कालिय-सुय-आणुओगिए धीरे।
ते पणमिऊण सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं॥ म अर्थ-अन्य जो भी कालिक श्रुत तथा अनुयोग के धारक धीर आचार्य भगवन्त हैं उन ॐ सभी को प्रणाम करके मैं तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित ज्ञान की प्ररूपणा करता हूँ।
After paying my homage to all the other Acharyas who were Hi experts of Kalik Sutras and Anuyog I commence presenting the
knowledge propagated by Tirthankars. 卐 विवेचन-दूष्यगणि के पश्चात् उनके शिष्य आचार्य देववाचक अथवा देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण
वाचनाचार्य बने। यह विराट् व्यक्तित्व के धनी आचार्य जैन परम्परा में सदा सर्वदा पूजित रहेंगे। ॐ वी. नि. ९८० में इन्होंने जो क्रान्तिकारी कार्य किया वही आज जैन श्रुत-सम्पदा के रूप में हमें है उपलब्ध है। देवर्द्धिगणि ने लुप्त होते आगम ज्ञान को वल्लभी में संकलित व सुव्यवस्थित तो
किया ही, साथ ही उस समस्त ज्ञान-सम्पदा को लिपिबद्ध करवाकर श्रुतज्ञान परम्परा को स्थायित्व भी दिया।
जन्मना वे काश्यप गोत्रीय क्षत्रिय राजकुमार थे। सौराष्ट्र के वैरावल पहन में उनका जन्म हुआ था। एक मान्यता यह है कि इन्होंने आचार्य लोहित्य के पास दीक्षा ली। किन्तु काल गवेषणा
व विवेचन से इनका दूष्यगणि आचार्य का शिष्य होना ही अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है। म संभवतः आचार्य लोहित्य के पास इन्होंने आगमों तथा एक पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया हो।
देवर्द्धिगणि के जन्मादि काल के विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है किन्तु उनके स्वर्गवास ॐ के विषय में स्थापित मान्यता यह है कि वी. नि. १000 में उनका देहावसान हुआ और उसी
के साथ पूर्व ज्ञान का विच्छेद हो गया। 4 Elaboration - Devardhigani Kshamashraman - After 4. Dushyagani his disciple Deva Vachak or Devardhigani
Kshamashraman became the Vachanacharya. This lofty personality 45 will always occupy a reverential place in the Jain tradition. The श्री नन्दीसूत्र
Shri Nandisutra
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