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कोई श्रमण बचा नहीं था। वे स्वयं नेपाल की पर्वतीय कन्दराओं में जाकर महाप्राण ध्यान में साधनारत थे। संघ के आग्रह पर वे कुछ योग्य पात्रों को अपना श्रुतज्ञान देने को सहमत हो गये । संघ ने पॉच सौ श्रमणों का चयन कर उनके पास भेजा। इस कठोर ज्ञान-साधना में केवल आर्य स्थूलभद्र पूर्णकाल तक संलग्न रह सके, अन्य सभी लौट आये। स्थूलभद्र भी चौदह पूर्वी में से केवल दस पूर्वी (दो वस्तु कम ) का अर्थ ही प्राप्त कर सके शेष चार पूर्वों का मात्र पाठ ही उन्हें प्राप्त हुआ।
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आचार्य भद्रबाहु ने द्वादशांगों की वाचना के अतिरिक्त छेदसूत्रों की रचना भी की। ये ग्रन्थ हैं- दशाश्रुतस्कन्ध। (कल्पसूत्र इस ग्रन्थ के आठवें अध्ययन का विस्तार है), वृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र और निशीथ । अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु का देहावसान कलिंग प्रदेश के कुमार पर्वत पर ध्यानावस्था में वी. नि. १७० ( २९९ वि. पू., ३५६ ई. पू.) में हुआ। आपके साथ ही अर्थ वाचना की दृष्टि से श्रुतकेवली परम्परा का विच्छेद हो गया।
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आचार्य स्थूलभद्र - गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र का जन्म मगध के प्रसिद्ध ब्राह्मण अमात्य शकटाल (शकडाल, शकटार) के घर में हुआ था जो मगध राजनीति की धुरी थे। इनके सात बहनें थीं जो कालान्तर में आचार्य सम्भूतविजय के पास ही दीक्षित हो श्रमणियाँ बनीं। इनका छोटा भाई श्रीयक भी मगध राज्य-सेवा में था । युवावस्था में सांसारिक व्यवहार कुशलता की शिक्षा हेतु अमात्य शकटाल ने स्थूलभद्र को परम सुन्दरी गणिका (नर्तकी) कोशा के पास भेजा और वे उस पर आसक्त हो वहीं रह गये । बारह वर्ष पश्चात् शकटाल की किसी षड्यन्त्र में मृत्यु के उपरान्त राजा ने उन्हें मन्त्री पद देने के लिए बुलाया । राजनैतिक कुचक्र में पिता की मृत्यु के समाचार से स्थूलभद्र की विचारधारा ही बदल गई। उन्होंने संसार त्याग कर श्रमण बनने का निश्चय कर लिया। वी. नि. १४६ (३२३ वि. पू. ३८० ई. पू.) में उन्होंने आचार्य संभूतविजय के पास दीक्षा ग्रहण की। अपने संयम की आत्म-परीक्षा हेतु गणिका कोशा के आवास पर पावस व्यतीत करने की घटना जैन इतिहास की प्रसिद्ध घटना है।
बारह वर्षीय अकाल के पश्चात् बिखरे श्रुतज्ञान के संकलन हेतु पाटलिपुत्र में श्रमण-सम्मेलन आयोजक स्थूलभद्र ही थे । ग्यारह अंगों के संकलन के बाद 'दृष्टिवाद' का ज्ञान प्राप्त करने गये पाँच सौ श्रमणों में स्थूलभद्र में ही वह शक्ति और लगन थी कि वे भद्रबाहु से चौदह पूर्वो की वाचना पा सके। जब दस पूर्वों का सूत्रात्मक और अर्थात्मक ज्ञान वे प्राप्त कर चुके थे तभी एक घटना घट गई।
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उनकी सात बहनें, जो स्वयं भी श्रमणियाँ थीं, उनकी श्रुत-आराधना देखने को उत्सुक हो उनके पास गईं। स्थूलभद्र यह बात अपने ज्ञान -बल से जान गये थे। अपनी बहनों के समक्ष अपनी साधना का चमत्कार दिखाने के लिए सिंह का रूप धर कर बैठ गये। बहनें भय से ठिठक गईं तो वे अपने स्वाभाविक रूप में लौट आये। बहनें अपने भाई की शक्ति से चमत्कृत व गर्वित हुईं।
5 युग-प्रधान स्थविर वन्दना
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Obeisance of the Era-Leaders
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