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5555555555555555555555 का सम्पूर्ण ज्ञान था। इस कारण वे श्रुतकेवली अथवा चतुर्दश पूर्वधर कहलाए। यह परम्परा आचार्य भद्रबाहु तक चलती रही ।
आर्य यशोभद्र - आर्य यशोभद्र का जन्म तुंगिक गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में वी. नि. ३६ (४३३
वि. पू., ४९० ई. पू.) में हुआ था। वे कर्मकाण्डी वैदिक परम्परा के अपने समय के मूर्धन्य
विद्वान् थे। आर्य शय्यम्भव के प्रवचन से प्रभावित हो उन्होंने बाईस वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की। चौदह वर्ष तक अपने गुरु के निर्देशन में उन्होंने सम्पूर्ण अंगशास्त्रों का पारायण किया। आर्य शय्यम्भव
के देहावसान के पश्चात् ये छत्तीस वर्ष की आयु में आचार्य बने । पचास वर्ष तक
सफलतापूर्वक संघ का संचालन कर वी. नि. १४८ (वि. पू. ३२१, ई. पू. ३७८) में इनका
स्वर्गवास हुआ। आर्य यशोभद्र के समय में मगध में आठवें नन्द का राज्य था और ऐसी मान्यता
है कि उन्होंने नन्द राजाओं को प्रतिबोध दिया था। आर्य यशोभद्र ने जैन परम्परा में एक
क्रान्तिकारी परिवर्तन किया - परम्परा में प्रथम बार उन्होंने दो शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया।
आर्य संभूतविजय - आर्य यशोभद्र के ज्येष्ठ शिष्य संभूतविजय माढर गोत्रीय ब्राह्मण परिवार
से थे। आर्य यशोभद्र के निकट सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त कर आप चतुर्दश पूर्वधर बने । इतिहास
प्रसिद्ध मगध के अमात्य शकटार का परिवार इन्हीं का अनुयायी था। इनका देहावसान वी. नि. १५६ (३१३ वि. पू., ३७० ई. पू.) में हुआ ।
आचार्य भद्रबाहु - आर्य यशोभद्र के दूसरे शिष्य थे आचार्य भद्रबाहु । इनका जन्म प्रतिष्ठानपुर
( पैठन) के प्राचीन गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में वी. नि. ९४ (३७५ वि. पू., ४३२ ई. पू.) में हुआ
था। अपनी कुल परम्परा अनुसार उन्होंने अनेक विद्याओं का अध्ययन किया, किन्तु वीतराग
वाणी के प्रति उनका आकर्षण यथेष्ट होने से उन्होंने वी. नि. १३९ (३३० वि. पू. ३८७ ई.
पू.) में आर्य यशोभद्र के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली । सत्रह वर्ष की दीर्घ समयावधि तक अपने गुरु के सान्निध्य में उन्होंने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त किया ।
आर्य संभूतविजय के महाप्रयाण के पश्चात् वी. नि. १५६ में ये आचार्य बने और पट्टधर
पद प्राप्त किया । यद्यपि इस विषय में कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है किन्तु अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानों तथा इतिहासकारों का मत है कि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य आचार्य भद्रबाहु के
शिष्य थे । किन्तु काल-गणना के अनुसार वे इसी नाम के कोई अन्य आचार्य हो सकते हैं ।
आर्य भद्रबाहु के समय में बारह वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा। भिक्षोपजीवी श्रमणों को भी
भिक्षा मिलने में कठिनाई होने लगी | साधु-संघ धीरे-धीरे छिन्न-भिन्न हो गया और समुद्र तट की
ओर प्रयाण कर गया। अध्ययन और आगम आवृत्ति की चर्या बाधित हो गई और इस दीर्घ
दुष्काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान भी छिन्न-भिन्न हो गया। अकाल जब समाप्त हुआ तब समस्त
साधु-संघ पाटलिपुत्र में एकत्र हुआ और जिस-जिस को जो कुछ याद था वह सब संकलित किया गया। बारहवें अंग, दृष्टिवाद का संकलन नहीं हो सका । भद्रबाहु को छोड़ सम्पूर्ण श्रुतज्ञान-सम्पन्न
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श्री नन्दी सूत्र 5
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Shri Nandisutra
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