________________
(e
विवेचन - ऐसा लगता है कि इस सूत्र में त्रैराशिक मत का विवरण रहा होगा। जिस प्रकार जैन विचारधारा में तीन दृष्टिकोण हैं- संयत, असंयत, संयतासंयत, जीव, अजीव, जीवाजीव, आदि उसी प्रकार संभव है त्रैराशिक मत में च्युत, अच्युत, च्युताच्युत शब्द प्रचलित रहे हों । परिकर्म के उपसंहार वाक्यों में भी यही इंगित मिलता है - " आदि के छह परिकर्म चार नयों के आश्रित हैं और सातवाँ त्रैराशिक पर।" इसका यह संकेत भी है प्रथम छह परिकर्म स्व-पक्ष का वर्णन करते हैं और सातवाँ अन्य पक्ष (त्रैराशिक मत) का ।
Elaboration-It appears that this section must have contained details about the Trairashik school. There are three viewpoints popular in Jain school — Samyat, asamyat, and samyatasamyat; jiva,
5 ajwa, and jivajiva; etc. In the same way it is possible that in the Trairashik school the terms-chyut, achyut, and chyutachyut may have been popular. The concluding sentence of the parikarma section also indicates this "The first six parikarmas are based on four nayas and the seventh on Trairashik naya." It may also be inferred that the first six parikarmas present Jain viewpoint and the seventh that of others (like Trairashik).
१०५ : से किं तं सुत्ताई ?
सुत्ताइं बावीसंपन्नत्ताई, तं
जहा - ( १ ) उज्जुसुयं, (२) परिणयापरिणयं, (३) बहुभंगिअं, (४) विजयचरिअं (५) अणंतरं, (६) परंपरं, (७) आसाणं, (८) संजूणं (९) संभिण्णं, (90) अहव्वायं, (११) सोवत्थिआवत्तं, (१२) नंदावत्तं, (१३) बहुलं, (१४) पुट्ठापुट्टे, (१५) विआवत्तं, (१६) एवंभूअं, (१७) दुयावतं, (१८) वत्तमाणपयं, (१९) समभिरूढं, (२०) सव्वओभद्दं, (२१) पस्सासं, (२२) दुप्पडिग्गहं ।
सुत्ताइं ।
(II) सूत्र (II) SUTRA
श्रुतज्ञान
5
इच्चे आई बावीसं सुताई छिन्नच्छेअ नइआणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीस सुत्ताइं अच्छिन्नच्छेअ नइआणि आजीविअसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीसं सुत्ताइं तिग - इयाणि तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइ आई बावीसं सुत्ताइं चउक्कनइयाणि ससमयसुत्त-परिवाडीए। एवामेव सपुव्वावरेण अट्ठासीई सुत्ताइं भवतीतिमक्खायं, से
Jain Education International
( ४४३ )
For Private & Personal Use Only
5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 €
�555555955555545555 555 5555 555
Shrut - Jnana
卐
www.jainelibrary.org