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5 consequence the purity of conduct increases. This purity 4 expands the Avadhi-jnana acquired by the soul in all directions. $ This expanding or increasing Avadhi-jnana is known as
Vardhaman Avadhi-jnana. म विवेचन-जैनदर्शन क्रियाकाण्ड से अधिक भावनाओं तथा विचारों की शुद्धता पर बल देता
है। क्रियाकाण्ड कितना भी व्यवस्थित व शुद्ध हो अध्यवसायों व परिणामों की विशुद्धि के बिना न ॐ तो ज्ञान में विकास होता न आत्म-शुद्धि में। इससे विपरीत जैसे-जैसे भावनाएँ निर्मल होती जाती म हैं आत्मा शुद्ध होती है। दूसरे शब्दों में आत्मा पर पडे आवरणों का क्षयोपशम होता है और ज्ञान निरन्तर विकास पाता है।
Elaboration–Jain philosophy lays more stress on the purity of thoughts and attitude than the ritual practices. No matter how immaculate and correct are the ritual practices, in absence of the
purity of attitude and sincerity of endeavour neither there is a 45 4 development in knowledge nor an increase in purity of the soul. On si
the contrary with the cleansing of feelings or attitude the soul 15 becomes purer. In other words there is a kshayopasham (suppressioncum-extinction) of the veils covering the soul followed by continued increase in knowledge.
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अवधिज्ञान का जघन्य विषय-(क्षेत्र)
THE MINIMAL SCOPE OF AVADHI-JNANA १४ : जावइया तिसमया-हारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स।
ओगाहणा जहन्ना, ओहीखेत्तं जहन्नं तु। अर्थ-तीन समय के आहारक सूक्ष्म पणग जीव (निगोदिया जीव) की जितनी जघन्य (कम से कम) अवगाहना (जितना स्थान कोई वस्तु ग्रहण करे, अर्थात् आकार) होती है । अवधिज्ञान का कम से कम उतना क्षेत्र होता है।
14. The minimum scope of Avadhi-jnana is equivalent to the 5 minimum area occupied by a three samaya (the ultimate
fraction of time) old micro-panag being or a dormant micro# organism having intake-capacity.
विवेचन-पणग जीव की श्रेणी में काई, नीलन, फूलन आदि आते हैं। जैन जीव-विज्ञान के अनुसार ये निगोद जीवों की श्रेणी में आते हैं। निगोद जीव उसे कहते हैं जो अनन्त जीवों का 9 पिण्ड हो अर्थात् एक शरीर में अनन्त जीव रहते हों। निगोद जीव दो प्रकार के होते हैं-बादर 5 卐 अवधि-ज्ञान
Avadha-Jnana 卐 $55岁览第助听听听听听听听听听听听听听听助听助第5555
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