________________
र (५८)
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 1 15 सूत्र ८ : एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वइए समाणे बहूण | र अण्णउत्थियाणं, बहूणं गिहत्थाणं सम्मं सहइ, बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं, 7 5 बहूणं सावियाणं नो सम्मं सहइ, एस णं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते। 5 सूत्र ८ : “उसी प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो ! जो साधु-साध्वी दीक्षा लेने के बाद बहुत से अन्य ट 5 तीर्थकों व गृहस्थों के प्रतिकूल वचनों को तो सहन करलेता है और बहुत से साधु-साध्वियों तथा डी र श्रावक-श्राविकाओं के प्रतिकूल वचनों को नहीं सह पाता, ऐसे पुरुष को मैंने देश-आराधक कहा है। टे $ 8. “Similarly, Long-lived Shramans! those of our ascetics who, after S R getting initiated, fully tolerate the criticism by ascetics and laity of other , 5 schools and remain equanimous, but fail to do so in case of criticism by other 15 ascetics and laity of our school I call partial aspirers.
र सूत्र ९ : समणाउसो ! जया णं नो दीविच्चगा णो सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव । 15 महावाया वायंति, तए णं सब्वे दावद्दवा रुक्खा झोडा जाव मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठति। दी
र सूत्र ९ : “आयुष्मान् श्रमणों ! जब द्वीप की ओर या समुद्र की ओर किसी भी प्रकार की कोई 1 15 भी वायु नहीं बहती, तब समस्त दावद्रव वृक्ष मुरझाये हुए जीर्ण सरीखे तथा ढूंठ जैसे हो जाते हैं। ड र 9. “Long-lived Shramans! When no wind of any type blows either towards ]
the island or towards the sea all the Davadrav trees become drooped and look 15 like old bare stumps. 15 सर्व-विराधक
र सूत्र १0 : एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं ट 15 सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अन्नउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ, एस णं मए ड
र पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते। र सूत्र १० : "उसी प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो ! जो साधु-साध्वी दीक्षा लेने के बाद किसी के 5 र भी (विस्तार सूत्र ६ के समान) दुर्वचन को सहन नहीं करता उसे मैंने सर्व विराधक कहा है।
5 ABSOLUTE DECLINERS > 10. "Similarly, Long-lived Shramans! those of our ascetics who, after 9
getting initiated, cannot tolerate any criticism by anyone I call absolute , 5 decliners.
सूत्र ११ : समणाउसो ! जया णं दीविच्चगा वि सामुद्दगा वि ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव 5 वायंति, तदा णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति। 15 (58)
JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAnnnnnn)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org