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उपसंहार
ज्ञाताधर्मकथा की यह अठारहवीं कथा अन्य कथाओं के समान दुष्कर्म के दुष्फल पर तो प्रकाश द र डालती ही है साथ ही इसमें साधना की ओर अग्रसर व्यक्ति के साधना के निमित्त शरीर अथवा र जीवन को बनाए रखने के कर्तव्य के प्रति जागरूक रहने पर भी बल दिया है। आत्मा और शरीर दी 5 को पृथक जानने समझने और स्वीकार कर लेने के स्तर पर जो अनासक्ति उत्पन्न होती है उसकी ड र झलक प्रस्तुत की गई है।
CONCLUSION
This eighteenth story of Jnata Dharma Katha details the evil results of evil deeds, as do the other stories. Besides this, it lays emphasis on the need 2 to protect one's life for the purpose of spiritual practices. Also provided is a 5 glimpse of the ultimate state of detachment when the practicer realizes and
accepts that the soul is different from the body.
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उपनय गाथा
जह सो चिलाइपुत्तो, सुंसुमगिद्धो अकज्जपडिबद्धो। धण-पारद्धो पत्तो, महाडविं वसणसय-कलिअं॥१॥ तह जीवो विसयसुहे, लुद्धो काऊण पावकिरियाओ। कम्मवसेणं पावइ, भवाडवीए महादुक्खं ॥२॥ धणसेट्टी विव गुरुणो, पुत्ता इव साहवो भवो अडवी। सुय-मांसमिवाहारो, रायगिह इह सिवं नेयं॥३॥ जह अडवि-नयर-नित्थरण-पावणत्थं तएहिं सुयमंसं। भत्तं तहेह साहू, गुरुण आणाए आहारं ॥४॥ भवलंघण-सिवपावण-हेउं भुंजंति न उण गेहीए। वण्ण-बल-रूवहेउं, च भावियप्पा महासत्ता ॥५॥
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JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA FinnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnAAAAAAAAM)
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