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________________ - - र सोलहवाँ अध्ययन : अमरकंका ( १९१) 15 सूत्र ५३ : तए णं ते सागरदत्ते सत्थवाहे कुड्डंतरिए सागरस्स एयमद्वं निसामेइ, निसामित्ताडी र लज्जिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे टै 15 तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सद्दावेइ, सद्दावित्ता अंके निवेसेइ, निवेसित्ताडा र एवं वयासी12 ‘किं णं तव पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का ! अहं णं तुम तस्स दाहामि जस्स णं तुम इट्ठाड 5 जाव मणामा भविस्ससि' त्ति सूमालियं दारियं ताहिं इटाहिं वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता दी र पडिविसज्जेइ। 15 सूत्र ५३ : सार्थवाह सागरदत्त ने दीवार के पीछे से सागर दारक की यह बातें सुन ली। वह दी 12 इतना लज्जित हुआ कि सोचने लगा-धरती फट जाये तो मैं उसमें समा जाऊँ। वह जिनदत्त के घर 5 र से बाहर निकलकर अपने घर लौट आया। उसने सुकुमालिका को बुलाकर अपनी गोद में बिठाया टे 15 और बोला र “हे पुत्री ! सागर ने तुझे त्याग दिया है तो क्या हुआ? अब मैं तुझे ऐसे पुरुष को दूंगा जिसे तू है 15 इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ होगी।" यह कहकर उसने मधुर वाणी से अपनी पुत्री को आश्वस्त दी र किया और वापस भीतर भेज दिया। 5 53. Merchant Sagardatt had heard all this exchange between Sagar and I 15 his father from behind the partition wall. He got so ashamed that he l 2 thought- “May the earth split and draw me in.” He got out from the house of SI > Jindatt and returned home. He called Sukumalika, took her in his lap and said, “Daughter! It hardly matters that Sagar has left you. I would remarry 15 you and this time to a person who would like you and love reassured his daughter with soothing and sweet words. 15 सुकुमालिका का पुनर्विवाह र सूत्र ५४ : तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे अन्नया उप्पिं आगासतलगंसि सुहनिसण्णे रायमग्गे टै 15 आलोएमाणे आलोएमाणे चिट्ठइ। तए णं से सागरदत्ते एगं महं दमगपुरिसं पासइ, डी र दंडिखंड-निवसणं खंडमल्लग-खंडघडगहत्थगयं फुट्टहडाहडसीसं मच्छियासहस्सेहिं जावटी 15 अन्निज्जमाणमग्गं। र सूत्र ५४ : एक बार सार्थवाह सागरदत्त अपने भवन की छत पर सुखपूर्वक बैठा राजमार्ग की टी 15 ओर देख रहा था। तब उसने एक अत्यन्त दीन भिखारी को देखा। वह सांधे हुए टुकड़ों का वस्त्र डा र पहने था, उसके हाथ में सिकोरे और घड़े के टुकड़े (ठीकरे) थे। उसके बाल बिखरे हुए थे और ही 5 उसके चारों ओर आगे पीछे हज़ारों मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। UUUUUUU 15 CHAPTER-16 : AMARKANKA (191) दा 卐nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007651
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1997
Total Pages467
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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