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र सोलहवाँ अध्ययन : अमरकंका
( १७५ ) टा 15 तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता जाव इहं हव्वमागया। तं कालगए णं भंते ! धम्मरुई अणगारे,S
र इमे से आयारभंडए।" 15 सूत्र १८ : तब वे श्रमण अपने गुरु का आदेश स्वीकार कर वहाँ से निकले और चारों ओर 12 धर्मरुचि अनगार को ढूंढते हुए उस स्थान पर आए जहाँ वह स्थंडिल भूमि थी। वे क्या देखते हैं कि टा
र धर्मरुचि अनगार का निश्चेष्ट, निष्प्राण और निर्जीव शरीर वहाँ पड़ा हुआ है। उनके मुँह से सहसा दा 15 निकल पड़ा-“हा ! हा ! अहो अकार्य हो गया !" और तब उन्होंने धर्मरुचि मुनि के परिनिर्वाण ।
सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया, उनके पात्रादि उठाये और लौटकर धर्मघोष स्थविर के पास पहुंचे। र गमनागमन का प्रतिक्रमण करके बोले
___"आपका आदेश पाकर हम यहाँ से निकले और सुभूमिभाग उद्यान के चारों ओर र खोजते-खोजते स्थंडिल भूमि तक गये। भंते ! धर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं यह ट 5 जानकर हम यथाशीघ्र लौट आये हैं। ये उनके पात्रादि हैं।' 2 18. The ascetics accepted the order of their guru and set out in search of a
ascetic Dharmaruchi. When at last they arrived at that spot they saw that the breathless, lifeless, dead body of ascetic Dharmaruchi was lying there. Taken aback they uttered, “Oh! What a tragedy!" Regaining their composure they performed the ritual post death meditation, collected the bowls, etc. and
returned to Sthavir Dharmaghosh. After the ritual movement review P (Gamanagaman Pratikraman) they said -
"According to your instructions we went out and searched all around the Subhumibhag garden. We reached the forlorn spot suitable for throwing waste. Bhante! We saw that ascetic Dharmaruchi had breathed his last. We
immediately returned back. These are his belongings." 5 सूत्र १९ : तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुव्वगए उवओगं गच्छंति, गच्छित्ता समणे निग्गंथे ड र निग्गंथीओ य सदावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु अज्जो ! मम अंतेवासी धम्मरुई नामंट 5 अणगारे पगइ भद्दए जाव विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे जाव ड र नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविटे, तए णं सा नागसिरी माहणी जाव निसिरइ। 5 सूत्र १९ : तत्पश्चात् स्थविर धर्मघोष ने पूर्वश्रुत का उपयोग लगाया-ध्यान किया, और ड 15 श्रमण-श्रमणियों को बुलाकर कहा-“हे आर्यों ! निश्चय ही मेरा शिष्य धर्मरुचि नामक अनगार ड र स्वभाव से भद्र व विनीत था। वह मासखमण की तपस्या कर रहा था। पारणे हेतु भिक्षा के लिए वह र नागश्री ब्राह्मणी के घर गया। ब्राह्मणी ने विष जैसी कडुवी तुंबे की सब्जी उसके पात्र में उंडेल दी। डा र (धर्मरुचि अनगार ने उसे अपने लिए पर्याप्त आहार समझा। इत्यादि स्थविर धर्मघोष ने मृत्यु के टा र भय से मुक्त हो वह भोजन खाने आदि की पूरी घटना सुना दी।)
TER-16 : AMARKANKA
(175) सा FAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAALE
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