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द्वारा बुलाये जाने पर वह उस व्रण (घाव) पर मुँह लगाकर वापस विष को पी लेता है। किन्तु अगन्धन जाति का सर्प-अग्नि में जलकर मर जाना स्वीकार कर लेता है, वमन किये विष को वापस नहीं पीता। ___ इसी उदाहरण द्वारा सती गजीमती मुनि ग्थनेमि को उद्बोधन देती है कि अगन्धन कुल में उत्पन्न सर्प की तरह त्याग किये हुए विषयों को वापस ग्रहण करने से तो मर जाना अच्छा है। चित्र क्रमांक ४ में इसे दर्शाया गया है। इस विषय में आचार्य महाप्रज्ञ ने विसवन्त जातक का सुन्दर दृष्टान्त दिया है, जो इस उदाहरण पर अच्छा प्रकाश डालता है
एक बार शास्ता (तथागत बुद्ध) ने भिक्षुओं को सम्बोधित करके कहा-"भिक्षुओ ! एक Read वार छोड़ी हुई चीज को सारिपुत्र ग्रहण नहीं करता, भले ही प्राण छोड़ने पड़ें।" फिर उन्होंने
अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाई-प्राचीन काल में वाराणसी में ब्रह्मदत्त राजा राज्य करता था। उस समय वोधिसत्व एक विष-वैद्य कुल में उत्पन्न हुए। एक वार किसी ग्रामीण को साँप ने इस लिया। उसके स्वजनों ने तुरन्त विष-वैद्य को बुलाया। वैद्य ने उनसे पूछा-“औषधि से विष दूर करूँ अथवा जिस साँप ने डसा है, उसे बुलाकर उसी के द्वारा विष वापस निकलवाऊँ?" लोगों ने कहा-साँप को बुलाकर विष निकलवाओ।" वैद्य ने साँप को वुलाकर पूछा-"तुमने इसे डसा है ?'' साँप ने उत्तर दिया-'हाँ, मैंने ही डसा है।"
वैद्य-"अपने डसे हुए स्थान से उस विष को वापस पी।"
साँप-“मैंने एक बार छोड़ा हुआ विष कभी पुनः ग्रहण नहीं किया। अतः मैं ऐसा से करूँगा।"
वैद्य ने लकड़ियाँ मँगाकर आग जलाई और कहा-“अगर अपने उगले हुए विष को | वापस नहीं खींचता है तो इस जलती अग्नि में प्रवेश करना पड़ेगा।"
सर्प ने कहा-“अग्नि प्रवेश कर मर जाना मंजूर है, किन्तु एक वार छोड़ा हुआ विष ANS फिर नहीं चादूँगा। यह कहकर सर्प ने एक गाथा कही
धिरत्थु ते विसं वन्तं यमहं जीवितकारणा।
वन्तं पच्चाविस्सामि मतम्मे जीविता करे॥ ___-धिक्कार है इस जीवन को, जिस जीवन के लिए एक बार विष उगलकर वापस निगलना पड़े। ऐसे जीवन से मरना अच्छा है। यह कहकर सर्प अग्नि में प्रविष्ट होने को तैयार हो गया। तब वैद्य ने उसे रोका और कहा-“अब किसी को दुःख न देना।" यह कहकर सर्प को निर्विष करके छोड़ दिया और रोगी को औषधि से ठीक कर दिया।
(जातक प्र. खण्ड, पृ. ४०-४७)
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श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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