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((प्रकाशकीय)
शास्त्र हमारा वह ज्ञान कोष है, जिसके पीछे हजारों, लाखों वर्ष की अनवरत साधना, चिन्तन और आत्मानुभव की अखण्ड तपस्या का प्रकाश छिपा है। भौतिक लालसाओं से मुक्त और अध्यात्म आनन्द की
अनुपम उपलब्धि से युक्त जिन महापुरुषों ने अपने साधना काल में जो जो अनुभव, जिसे हम स्वात्मानुभव कह सकते हैं प्राप्त किये उन सब स्वात्मानुभवों की सटीक शब्द अभिव्यक्ति का संग्रह है शास्त्र। इसलिए कुबेर के खजाने और चक्रवर्ती के नवनिधान से भी दुर्लभ है-शास्त्र ज्ञान का खजाना। वह दुर्लभ खजाना हमें सहज रूप में प्राप्त हुआ है अतः हम कितने सौभाग्यशाली हैं यह आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं।
शास्त्र केवल ज्ञान ही नहीं देता, जीवन जीने की कला भी सिखाता है। शास्त्र पढ़कर पण्डित बनना एक अलग बात है. किन्त शास्त्र पढकर जीने की कला सीखना बहत ही अलग बात है। आज पढ़े-लिखे और पण्डित तो मिल जाते हैं, परन्तु शास्त्र को आचार धर्म बनाने वाले ज्ञानी बहुत कम मिलते हैं। जरूरत है शास्त्र को आचार धर्म बनाया जाय। शास्त्र में बताई हुई जीवन-कला हम सीखें, सम्पूर्ण रूप में न सही उसके कुछ सूत्र ही जीवन में उतारें तो शास्त्र ही हमारा शास्ता बन जायेगा। वही हमारा गुरु बन जायेगा। ___ दशवकालिक सूत्र ऐसा ही जीवन-शास्त्र है जिसे पढ़कर यदि आप इसके एक-एक वचन पर मनन करेंगे तो आपके जीवन में स्वाभाविक ही परिवर्तन आयेगा। परिष्कार आयेगा और संस्कार आयेगा। जीवन को संस्कारित और पवित्र बनाने के लिए ही हमने शास्त्रों को हिन्दी-अंग्रेजी भाषा के साथ चित्रमय प्रकाशित करने की अत्यन्त खर्चीली योजना प्रारम्भ की है।
उ. भा. प्रवर्तक गुरुदेव भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज के सुशिष्य विद्वद्रत्न उपप्रवर्तक श्री अमरमुनि जी महाराज ने लगभग चार वर्ष पूर्व एक अत्यन्त दूरदर्शी जनोपयोगी कार्य प्रारम्भ किया था। जैन सूत्रों का सचित्र रूप में हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशन। योजना के प्रारम्भ में हमें बहुत अधिक आशा नहीं थी कि कितने लोग इसे खरीदेंगे या पढ़ेंगे। क्योंकि अधिकतर पाठक हलका-फुलका साहित्य पढ़ने के आदी हैं और शास्त्र के नाम से ही चौंक जाते हैं या अपने को उसके अयोग्य मानकर उसे पढ़ने के बजाय पूजा कर लेना भर ही काफी समझते हैं। इसलिए शास्त्रों के प्रकाशन की योजना साहसिक होने के साथ ही लोक-रुचि से कुछ प्रतिगामी जैसी लगती है।
परन्तु चार-पाँच वर्ष के अनुभव से हम यह कह सकते हैं कि हमारी यह धारणा एकान्त सत्यं नहीं है। लोग पढ़ते हैं, पढ़ना चाहते हैं, पढ़ने की रुचि भी है परन्तु उन्हें पढ़ी जाने वाली पुस्तक समझ में तो आनी चाहिए। रुचिकर तो लगे। उसके लिए ही हमने यह शैली अपनायी कि २५००
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