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। प्रथम अध्ययन : द्रुमपुष्पिका ।
प्राथमिक जो आत्मा की सत्ता में विश्वास रखता है, वह आस्तिक है। आस्तिक विचारों का मूल आधार है, आत्मा। आत्मा की पूर्ण विकसित अवस्था का नाम है, परमात्मा। आत्मा को परमात्म-स्वरूप की उपलब्धि में जो साधन सहायक हों, उसे कहते हैं धर्म।
धर्म साधना भी है और सिद्धि-स्वभाव भी है। जब आत्मा परमात्म-स्वरूप की साधना के पथ पर बढ़ता है तब अहिंसा, संयम और तप उसके साधन बनते हैं-इन तीनों साधनों द्वारा आत्मा अपने स्वरूप की उपलब्धि अर्थात् समग्र स्वरूप को प्रकट कर लेता है तब ये तीनों साधन आत्मा का स्वभाव अर्थात् गुण बन जाते हैं। उस दशा में साधक सिद्ध बन जाता है। सिद्ध अशरीरी होते हैं। साधक शरीरधारी होते हैं। धर्म की साधना का निमित्त होता हैशरीर। ___ कहा है-मोक्खसाहण हेउस्स साहु-देहस्स धारणा-शरीर मोक्ष का साधन होने के कारण साधुओं को देह धारण की आवश्यकता रहती है।
निरन्तर विकास स्वभावी आत्मा का आवास है देह। इस देहरूपी आवास को टिकाए रखने तथा साधना योग्य बनाये रखने में मुख्य सहायक है आहार। आहार के बिना शरीर नहीं टिकता और हिंसा के बिना आहार कैसे निष्पन्न होगा? तब अहिंसा का साधक शरीर धारण के लिए क्या करे? हिंसा से बचे तो आहार नहीं मिलेगा, आहार नहीं मिलेगा तो शरीर कैसे टिकेगा और शरीर के बिना धर्म-साधना कैसे होगी?
इस जटिल समस्या का सरल समाधान उदाहरण द्वारा दिया है-माधुकरी वृत्ति। जैसे मधुकर फूलों को कष्ट, पीड़ा या हानि पहुँचाये बिना-थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण कर अपनी उदरपूर्ति कर लेता है वैसे ही साधक श्रमण किसी जीव की हिंसा किये बिना, किसी को हानि व कष्ट पहुँचाये बिना-सहजभाव से अपनी उदर पूर्ति करके शरीर- द्वारा धर्म-साधना करता रहे-इसका नाम है माधुकरी वृत्ति।
आचार्यश्री भद्रबाहु ने बताया है-भमरो ति य एत्थ दिटुंतो-भ्रमर-मधुकर यहाँ दृष्टान्त है अर्थात् उपमान है और श्रमण उपमेय है। मधुकर की अनियत वृत्ति (किसी एक स्थान से
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प्रथम अध्ययन : दुमपुष्पिका First Chapter : Dum Pupfiya
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