________________
Minum
-
को संतुलित और तनाव मुक्त रख सकता है इस विषय का बहुत ही अनुभूति पूर्ण उपदेश दशवैकालिक में विद्यमान है। ___ मेरा विश्वास है शायद इसकी इतनी व्यावहारिक उपयोगिता को देखकर ही श्रुतज्ञानियों ने इसे साधु जीवन के प्रवेश द्वार का प्रहरी बनाया हो और दशवैकालिक के कुछ अध्ययनों का अध्ययन किये बिना उसे साधु जीवन के महाव्रतों की उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) का अधिकारी भी नहीं बताया है। यह इसकी महत्ता और उपयोगिता का प्रमाण है। इसलिए मेरे विचार में दशवैकालिक सूत्र केवल श्रमण आचार का ही मुख्य आगम नहीं, किन्तु मानव-आचार का मूल ग्रन्थ कहा जा सकता है। जो स्थान वैदिक परम्परा में मानव धर्मशास्त्र मनुस्मृति का है जैन परम्परा में वही स्थान मानव धर्म प्रतिपादक दशवैकालिक सूत्र का है। ऐसा मेरा अभिमत है। और हो सकता है इस सूत्र का गहराई से अनुशीलन करने वाले पाठक भी मेरे विचार से सहमत होंगे। अस्तु वर्तमान संस्करण
दशवकालिक सूत्र पर अब तक अनेक संस्करण निकल चुके हैं। इसकी प्राचीन व्याख्याओं को आधार मानकर जो विवेचन और विस्तार अब तक के टीकाकार विद्वानों ने किया है वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। मैंने सम्पादन के समय इसके आठ, दस संस्करण पढ़े। उनका अनुशीलन किया। इसके बाद मुझे इसके दो संस्करण सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक लगे। उन्हीं को मैंने अपना आदर्श माना है।
पहला संस्करण है, आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज कृत हिन्दी विवेचन। इसकी अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। यह व्याख्या आज से लगभग ५३-५४ वर्ष पूर्व लिखी गई थी। उस समय तक आगम अनुसंधान की इतनी सामग्री सुलभ नहीं थी। न विशेष ग्रन्थ उपलब्ध थे और न ही इस दिशा में कोई मार्गदर्शक शैली सामने थी। आचार्य श्री ने स्वयं की प्रकृष्ट प्रतिभा व गहन आगम ज्ञान के बल पर तथा प्राकृत-संस्कृत भाषा का अधिकार पूर्ण ज्ञान होने के कारण जिस शैली की स्थापना की वह आज भी मार्गदर्शक है।
आचार्य श्री ने इस आगम का जो भावस्पर्शी सरल अनुवाद किया है वह इतना सटीक और उपयुक्त शब्दावली में है कि आज भी इसमें कोई संशोधन, परिवर्तन की संभावना नहीं दीखती। यदि कहीं उसके शब्द बदलने का प्रयास किया जाय तो शायद वे नये शब्द आगम के अभिप्राय को इतनी सही अभिव्यक्ति नहीं दे सकते। ऐसा लगता है कि भाषा की फ्रेम में उन्होंने जो शब्द-मणि जड़ दिये हैं उन्हें हटाने पर उनकी चमक-दमक वाला दूसरा उपयुक्त मणि वहाँ नहीं मिल सकेगा। मूलार्थ के बाद टीका में आगम परम्परा और टीकाकारों के अभिप्रायों का समन्वय करते हुए बहुत ही युक्ति-संगत लोक भोग्य विवेचन किया है। ___ दूसरा संस्करण है तेरापंथ के वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ जी द्वारा संपादित। यह भी अपनी शैली का सुन्दर, अनूठा और बहुत ही श्रम साध्य अनुसंधान पूर्ण संपादन है। यद्यपि अनुवाद की भाषा
(१७)
COM
EMALE
Muuuwal
AutumD
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org