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___ जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता वह जीव और
अजीव को न जानने वाला संयम को कैसे समझेगा? कैसे पालेगा?॥१२॥ ____ 12. He who neither knows about the living nor the nonliving, how can that ignorant about both living and non-living beings understand discipline or follow it? विशेषार्थ :
श्लोक १२. चूर्णि एवं टीकाकार का कथन है कि आचार्य (गुरु) को चाहिए कि वह पहले शिष्य को जीव-अजीव का ज्ञान कराये। फिर उस पर विश्वास-श्रद्धा स्थिर कराये। ज्ञानपूर्वक श्रद्धा कराने के पश्चात् ही उसका त्याग किया जा सकता है।
ज्ञान एवं श्रद्धाहीन शिष्य को व्रतारोहण नहीं करना चाहिए। ज्ञान श्रद्धायुक्त शिष्य को व्रतारोहण कराने पर यदि वह उसका पालन नहीं करता है तो गुरु उसका दोष भागी नहीं होता।
-जिनदास चूर्णि १४४, टी. १४५ ELABORATION: ___(12) The commentators say that the acharya should first teach the disciple about living and the non-living. After this he should strengthen the disciple's faith and belief. Abstinence is possible only with faith based on knowledge.
Vows should never be administered to a disciple devoid of faith. If such a disciple is negligent in following the vow, it is the guru who bears the consequence.
(Jinadas Churni, page 144) १३ : जो जीवे वि वियाणेइ अजीवे वि वियाणइ।
जीवाजीवे वियाणंतो सो हु नाहीइ संजमं॥ ___ जो जीवों को भी जानता है, अजीवों को भी जानता है और जो जीव और अजीव दोनों को भली प्रकार समझता है वह संयम को अवश्य ही समझ सकेगा।॥१३॥ ___13. He who knows the living and the non-living and understands them properly will certainly become capable of understanding discipline. | चतुर्थ अध्ययन : षड्जीवनिका Fourth Chapter : Shadjeevanika
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