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टीका के कर्ता हैं आचार्य श्री हरिभद्र सूरि। इनका समय है विक्रम की आठवीं शताब्दी। दीपिका के कर्ता हैं श्री समयसुन्दरगणी। समय विक्रम की १६वीं शताब्दी।
इसके बाद दशवैकालिक सूत्र पर रचित प्राचीन ज्ञान भण्डारों से दो महत्त्वपूर्ण चूर्णियां मिली हैं। जिनके अनुसंधान का श्रेय आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजय जी को है। इनमें प्रथम विशिष्ट चूर्णिकार अगस्त्यसिंह स्थविर हैं, इसकी रचना का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी का अनुमान है। आचार्य महाप्रज्ञ जी के मतानुसार अगस्त्यसिंह स्थविर देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती होने चाहिए और उनका समय होना चाहिए विक्रम की छठी शताब्दी। दूसरी महत्त्वपूर्ण चूर्णि है जिनदास महत्तर कृत। इनका समय विक्रम की ७ वीं शताब्दी माना जाता है।
ये व्याख्या ग्रन्थ दशवैकालिक सूत्र के अभिप्राय और परम्परागत अर्थ को उद्घाटित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण है। उस समय की अनेक परम्पराओं व सम्बन्धित कथाओं का उल्लेख इन चूर्णियों में हुआ है। ___ हमने अपनी संक्षिप्त व्याख्या शैली में उक्त सभी सामग्री का अवलोकन करते हुए प्रस्तुत दो व्याख्याओं का आधार लिया है। १. आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज कृत आत्म-ज्ञान-प्रकाशिका हिन्दी भाषा टीका। रचना
का प्रकाशन समय वि. सं. २००३। ईस्वी सन् १९४६। २. दसवेआलियं हिन्दी अनुवाद तथा विशिष्ट टिप्पण : सम्पादक मुनि नथमल (वर्तमान आचार्य
महाप्रज्ञ)। प्रकाशन समय वि. सं. २०३१ ईस्वी सन् १९६४। प्रस्तुत सूत्र के अनुवाद तथा विशेषार्थ में उक्त दोनों ही ग्रन्थ हमारे सामने रहे हैं और हमने तटस्थ भाव से इनका उपयोग किया है। एक खास बात, आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज कृत मूल गाथाओं का अनुवाद भावों को पूर्ण स्पष्ट करने वाला है। यह सरल तथा बहुत ही सटीक भाषा में हुआ है। कहीं-कहीं तो अनुवाद की भाषा इतनी सशक्त और बँधी हुई है कि उसकी शब्दावली बदलना भी सहज नहीं। जो स्पष्टता उनकी शब्दावली में है उसे देखकर मन कहता है कि इससे अधिक सुन्दर, समर्थ और सटीक अनुवाद शायद किया नहीं जा सकता। यही कारण है कि मूल गाथाओं को अपनी भाषा में अनुदित करते समय आखिर उन्हीं शब्दों पर आना पड़ता है जिनका उपयोग श्रद्धेय आचार्यश्री ने किया है। इसलिए पाठकों को कहीं-कहीं उस अनुवाद की नकल समझने का भ्रम भी हो सकता है, परन्तु मैं अपने परम श्रद्धेय आगम ज्ञानमहोदधि गुरुदेव की नकल भी कर सकूँ तो मेरे लिए सौभाग्य की बात है और अपने अधिकार क्षेत्र में है। मेरा प्रयत्न अपनी भाषा-शैली में अनुवाद करने का ही रहा है, परन्तु आगम का हार्द अधिक स्पष्ट करने के लिए शब्दों की अधिक खींचतान या घुमाव-फिराव न करके मैंने आचार्य भगवन्त की भाषा को भी ग्रहण किया है जो आगम पाठी पाठकों के लिए न्याय संगत ही होगा। अस्तु।
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