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________________ प्रस्तुत अन्तकृद्दशांगसूत्र के छठे वर्ग के तीसरे मुद्गरपाणि यक्ष नाम के अध्ययन में सागारी संथारा की विधि मर्यादा आदि का उल्लेख हुआ है। वहाँ श्रेष्ठी सुदर्शन सागारी संथारा करता है। भगवान महावीर राजग्रह नगर के बाहर पधारे। उस समय नगरी के बाहर यक्षाविष्ट अर्जुनमाली का आतंक छाया हुआ था। वह देखते ही मनुष्य को मुद्गर प्रहार से मार डालता था । सुदर्शन इस आतंक की चिन्ता न करके भगवान के दर्शनों के लिए नगरी से बाहर निकलता है। यक्षाविष्ट अर्जुनमाली उसे देखते ही मुद्गर उठाकर उसे मारने के लिए आगे बढ़ता है तव श्रेष्ठी सुदर्शन सागारी संथारा ग्रहण करता है। सूत्र के मूल पाठ का संक्षिप्त सारांश यह है सुदर्शन श्रेष्ठी ने अपने ग्रहीत व्रतों को पुनः जीवनभर के लिए दृढ़ किया, अठारह पापों तथा चारों प्रकार के आहार का त्याग किया और प्रतिज्ञा ग्रहण की- "यदि मैं इस उपसर्ग ( मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट अर्जुनमाली के उपसर्ग) से मुक्त हो जाऊँगा तो मुझे इन (उपरोक्त ) प्रत्याख्यानों को पारणा कल्पता है। यदि इस उपसर्ग से मुक्त न हो सकूँ तो (मेरे द्वारा ग्रहण किये गये) ये सभी प्रत्याख्यान शरीर में जब तक प्राण रहें तब तक के लिए हैं। " इस प्रतिज्ञा के साथ सुदर्शन श्रेष्ठी ने भगवान महावीर की शरण ली और सागारी संथारा स्वीकार कर लिया और भगवान के ध्यान में लीन हो गया। और जैसे ही वह उपसर्ग समाप्त हुआ, अर्जुनमाली के शरीर में से यक्ष निकल भागा, संकट समाप्त हुआ, इस सागारी संथारे की मर्यादा पूर्ण हो गई । श्रेष्ठी सुदर्शन ने ध्यान खोल लिया तथा अर्जुनमाली की प्रार्थना पर उसे साथ लेकर भगवान महावीर के समवसरण में जा पहुँचा। यह सागारी संथारा श्रावक और साधु- दोनों ही आसन्न संकट उपस्थित होने पर कर सकते हैं। उदाहरणार्थ- कोई साधु एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र को विहार कर रहा है। बीच में वनमार्ग में डाकू आदि असामाजिक तत्त्वों का उपद्रव हो जाय, अथवा ब्रह्मचर्य महाव्रत भंग होने का प्रसंग या ऐसी ही कोई विषम प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न हो जाय तो वह भी सागारी संथारा कर सकता है। संथारा पोरसी विवेकी और व्रतधारी श्रावक कभी भी असावधान नहीं रहते। लेकिन रात्रि को सोते समय चेतना धुँधली पड़ जाती है, जाग्रत अवस्था जैसी सावधानी नहीं रह पाती । शरीर निश्चेष्ट हो जाता है । निद्रा एक प्रकार से व्यक्ति की अल्पकालीन मृत्यु ही है । अतः वह रात्रि को सोते समय सागारी संथारा ग्रहण करता है, जिसे संथारा पोरसी भी कहा जाता है। सामान्यतः इस प्रकार के संधारे के लिए एक दोहा प्रसिद्ध है "आहार शरीर उपधि, पचयूँ पाप अठार | मरण होवे तो वोसिरे, जीयूँ तो आगार ॥” प्रातः नींद खुलने तथा नौ बार णमोकार मंत्र गिनने पर इस संथारे की समय मर्यादा पूर्ण हो जाती है। इसका महत्त्व यह है कि धर्मध्यान की धारा अंतरंग में चलने से दुःस्वप्न भी नहीं आते। साधक के अन्तकृद्दशा महिमा ३७४ • Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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