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________________ पुत्र ऋषभदेव की चिन्ता में मरुदेवी व्याकुल रहने लगी। बार-बार भरत (चक्रवर्ती) से ऋषभदेव के समाचार मँगाने का आग्रह करती । जब यह समाचार ज्ञात हुआ कि ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वे विनीता नगरी के बाह्य भाग में विराजमान हैं तो मरुदेवी के हर्ष का ठिकाना न रहा। उनसे मिलने के लिए हाथी पर सवार होकर चल पड़ी। भगवान ऋषभदेव उस समय देव-निर्मित समवसरण में विराजमान थे। उनकी ऋद्धि देखकर मरुदेवी अभिभूत हो गई। उसके मन में विचार उठे - 'मैं व्यर्थ ही चिन्ता करती थी । मेरा पुत्र तो बहुत बड़ी ऋद्धि का स्वामी बन गया है।' समवसरण की शोभा और प्रभु के तीर्थंकरोचित ऐश्वर्य का चिन्तन करते-करते मरुदेवी भावों की गहराई में उतर गई । उसे अपना मोह निरर्थक लगने लगा, सांसारिक सम्बन्धों की निःसारता का भी भान हुआ। धर्मध्यान का चिन्तन चलते-चलते शुक्लध्यान की क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुई । घनघाती कर्मों की शृंखलाएँ टूट गईं और शेष कर्म भी निर्जीण हो गये । कैवल्य-प्राप्ति के कुछ क्षण बाद ही आयुष्य पूर्ण करके सिद्ध हो गईं। भगवान ऋषभदेव ने कहा - " मरुदेवी सिद्ध हो गईं। इस अवसर्पिणी काल की ये प्रथम सिद्ध हैं । " इस प्रकार मरुदेवी ने तनिक भी वेदना का वेदन नहीं किया, व्यावहारिक दृष्टि से संयम साधना भी नहीं की और मुक्त हो गईं। वे अत्यल्प कर्मा थीं। यह चौथी अन्तक्रिया का उदाहरण है। ३२२ Jain Education International For Private Personal Use Only - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, उसहचरियं - त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र अन्तकृद्दशा महिमा www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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