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________________ यह कहकर मुनि सनत्कुमार ने अपनी एक अँगुली पर थूका। अंगुली निगंग होकर कुन्दन-सी चमकन लगी। दोनों देव आश्चर्यचकित हो गये। अपने मूल रूप में प्रगट होकर मुनि की वन्दना की और :, । तितिक्षा तथा समाधिपूर्वक वेदना सहन करने की प्रशंसा करते हुए चले गये। इस प्रकार मुनि सनत्कुमार सात सौ वर्षों तक तपस्या करते रहे तथा सभी कर्मों का क्षय किया। सनत्कुमार ने दीर्घ समय तक घोर वेदना सहन करने के उपरान्त कर्मों का नाश किया। यह तीसरी अन्तक्रिया का उदाहरण है। चतुर्थ अन्तक्रिया चौथे प्रकार की अन्तक्रिया वह होती है, जिसमें “अप्पकम्म पच्चायाते यावि भवति... निरुद्धेणं परियाएणं सिज्यति।"-अर्थात् वह (मानव) अत्यन्त अल्प कर्मों के साथ जन्म लेना है और अत्यल्य संयम-पर्याय (मन-वचन-काय-योगों के निरोध) से ही सिद्ध हो जाता है। इस चौथी अन्तक्रिया में न किसी प्रकार की वेदना ही भोगनी पड़ती है और न दीर्घकाल तक संयम-पर्याय का ही पालन करना पड़ता है, यहाँ तक कि केवल-पर्याय भी अधिक समय तक नहीं रहती; केवल्य-प्राप्ति के उपरान्त शीघ्र ही आयु समाप्त होने से जीव मुक्त हो जाता है। इसका उदाहरण है-“जहा-सा मरुदेवा भगवति।" यथा मरुदेवी भगवती। मझदेवी न किंचित् भी कष्ट नहीं भोगा. यहाँ तक कि व्यवहार दृष्टि से प्रव्रज्या भी धारण नहीं की. केवल भाव-दीक्षित रहीं और मुक्त हो गईं। मरुदेवी माता वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में जव योगनिक सभ्यता का अन्तिम चरण चल रहा था. उस समय विनीता नगरी के प्रांगण में एक युगल उत्पन्न हुआ जिसमें पुरुप का नाम नाभिगव धा और स्त्री का नाम था मझदेवी। उस समय यौलिक परम्पग समाप्तप्राय : थी और कुलकर परम्परा चल रही थी। नाभिगय चौदहवें कुलकर थे। मरुदेवी ने एक युगल को जन्म दिया। इनके नाम थ–(१) ऋपभदेव, और (२) सुमंगला। ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम गजा. प्रथम केवली और प्रथम तीर्थंकर तथा जैनधम के प्रथम आदिकर्ता हुए हैं। महंदवी की ख्याति के प्रमुख आधार ऋषभदेव ही हैं। इसी कारण मम्दवी प्रथम तीर्थंकर की जननी के रूप में प्रसिद्ध हैं। ऋपभदेव ने असि, मसि, कृषि आदि का शिक्षण दिया, समाज-व्यवस्था, गज-व्यवस्था आदि का प्रवतन किया और फिर श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली। अन्तकृदृदशा महिमा .३२१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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