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________________ भाषा अन्य आगमों के समान प्रस्तुत आगम की भाषा भी अर्द्ध-मागधी है । आगमकारों द्वारा कहा गया हैअर्द्धमागधी भाषा तीर्थंकरों, गणधरों और देवों को प्रिय होती है। तीर्थंकर इसी भाषा में प्रवचन देते हैं । जन-जन की भाषा होने से यह लोकोपकारक और लोकप्रिय होती है। सभी श्रोता इसे सरलता से समझकर अपना आत्म-कल्याण कर सकते हैं। शैली प्रस्तुत आगम का निबन्धन कथात्मक होते हुए भी इसकी शैली प्रश्नोत्तरात्मक है । जम्बू स्वामी प्रश्न करते हैं सुधर्मा स्वामी से कि श्रमण भगवान महावीर ने अन्तकृद्दशासूत्र के अमुक अध्ययन में क्या कहा है तब सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हुए उस अध्ययन की विषय-वस्तु का वर्णन करते हैं। इस वर्णन में वे पात्र. नगर आदि का वर्णन करते हुए उस व्यक्ति की संयम साधना और मुक्ति प्राप्ति तक का दिग्दर्शन कराते हैं। सुधर्मा स्वामी अपने वर्णन का प्रारम्भ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' - उस काल में, उस समय में, इन शब्दों से करते हैं। प्रस्तुत अन्तकृद्दशासूत्र के अतिरिक्त ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, विपाकसूत्र और अनुत्तरौपपातिकसूत्र में भी यही शैली अपनाई गई है। शब्द-रचना के सम्बन्ध में अर्द्ध-मागधी भाषा में दो रूप प्राप्त होते हैं - ( 9 ) व्यंजनान्त, और (२) स्वरान्त । उदाहरणार्थ- परिवसति - परिवसइ वण्णतो- वण्णओ आगतो- आगओ आदि । प्रस्तुत आगम में स्वरान्त शैली का अधिकांशतः प्रयोग हुआ है। स्वरान्त शब्द बोलने में सरल और सुनने में मधुर होते हैं। आगम-लेखन की दो शैलियाँ उपलब्ध होती हैं - ( १ ) अंक - योजना द्वारा संक्षिप्त पाठ, यथा- 'नमंसइ २ त्ता' और 'जाव' शब्द द्वारा मध्यवर्ती पाठ को छोड़कर पुनरावृत्ति दोष से बचना, तथा (२) अंक - योजना को छोड़कर पूरा पाठ देना, यथा-नमंस, नमंसित्ता । प्रथम अंक - योजना वाली संक्षिप्त शैली दुरूह है तो जाव शब्द न रखकर पूरा पाठ देना उबाऊ है। वास्तव में शैली रोचक होनी चाहिए। रोचक शैली अथवा कहने के रुचिकर ढंग से श्रोता अथवा पाठक की रुचि बनी रहती है वह विषय वस्तु को सरलता से हृदयंगम करके उससे प्रभावित होता है, प्रेरणा प्राप्त करता है। रोचकता बढ़ाने के लिए कथानक के साथ देशकाल आदि का वर्णन भी आवश्यक होता है। इस दृष्टि से प्रस्तुत आगम की शैली सुसंगठित, सुव्यवस्थित है। इसमें पात्रों के परिचय के साथ उनका चरित्र, वैभव, विवाह, प्राप्तदाय- पुरस्कार, प्रीतिदान आदि के साथ नगर, उद्यान, चैत्य, धर्मकथा, संसार-त्याग, भोगों से विरक्ति, संयमचर्या, तपाराधना, संलेखना, संथारा आदि का सर्वांगपूर्ण वर्णन किया गया है। उक्त वर्णन शैली श्रोता अथवा पाठक के हृदय में धार्मिक भावनाओं को तंरगायित करती है। साथ ही कुछ ऐसे तथ्य भी उपलब्ध होते हैं, जो काफी महत्त्वपूर्ण हैं | अन्तदशा महिमा Jain Education International For Private Personal Use Only ३०१ www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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