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________________ वर्ण्य-वस्तु के स्रोत एवं परिमाण प्रस्तुत अंग आगम का परिचय चतुर्थ अंग समवायांग, समवायांग वृत्ति, नन्दीसूत्र-वृत्ति-चूर्णि आदि प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होता है। समवायांग में इस अंगसूत्र में दस अध्ययन और सात वर्ग का उल्लेख प्राप्त होता है; जवकि नन्दीसूत्र में आठ वर्गों का उल्लेख तो है परन्तु अध्ययनों का कोई कथन नहीं है कि इसमें कितने अध्ययन हैं। समवायांग वृत्ति में आचार्य अभयदेव ने उक्त दोनों आगमों के कथन का सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है कि प्रथम वर्ग के दस अध्ययन और शेष सप्त वर्ग-इस प्रकार ८ वर्ग हो जाते हैं और दोनों आगमों के कथन की संगति बैठ जाती है। दिगम्बर परम्परा के आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थ राजवार्तिक ? (तत्त्वार्थ सूत्र की टीका) में और आचार्य शुभचन्द्र ने अपने अंगपण्णत्ति ग्रन्थ में दस नाम दिये हैं। कुछ पाठ-भेद के साथ ये नाम हैं (१) नमि, (२) मातंग, (३) सोमिल, (४) रामगुप्त, (५) सुदर्शन, (६) यमलोक, (७) वलीक, (८) कंबल, (९) पाल, और (१०) अंबष्ट-पुत्र। ___ साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि प्रस्तुत अंग आगम में प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में होने वाले दस-दस अन्तकृत केलियों का वर्णन है। इसी का समर्थन जयधवलाकर वीरसेन और जयसेन ने भी किया है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अन्तकद्दशांगसूत्र में सिर्फ भगवान अरिष्टनेमि और भगवान महावीर के युग के साधकों का वर्णन ही मिलता है। संभव है, काल-दोष के कारण अन्य तीर्थंकरों के युग के अन्तकृत् साधकों का वर्णन अनुपलब्ध हो गया हो। क्योंकि यह तो निर्विवाद तथ्य है कि द्वादशांगी हमें अति संक्षिप्त रूप में प्राप्त हुई है। वर्तमान अन्तकृद्दशा का परिमाण वर्तमान में जो अन्तकृद्दशांगसूत्र उपलब्ध है, उसमें आठ वर्ग और ९) अध्ययन तथा एक ही श्रुतस्कन्ध है। यही परिमाण नन्दीसूत्र में बताया गया है। अतः स्पष्ट है कि प्रस्तुत अग आगम नन्दीसूत्र वाचना के अनुसार है। इसमें ९०० श्लोक उपलब्ध होते हैं। इन आठ वर्गों में क्रमशः दस, आठ, तेरह, दस, दस, सोलह, तेरह और दस अध्ययन हैं। इनमें से प्रथम पाँच वर्गों के ५१ अध्ययनों में भगवान अरिष्टनेमि के युग के उन साधक-साधिकाओं के जीवन-वृत्तों और संयम-साधना का वर्णन हुआ है, जिन्होंने अपने इसी भव से मुक्ति प्राप्त की। छठवें, सातवें, आठवें वर्गों के ३९ अध्ययनों में भगवान महावीर के युग में उसी भव से मुक्ति पाने वाले साधक-साधिकाओं का जीवन-वृत्त विवेचित हुआ है। १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक १/२०, पृष्ट ७३ २. अंगपण्णत्ति ५१ ३. कषाय प्राभृत, भाग १, पृष्ठ १३० .३00. अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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