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________________ वन्दन करने आया । पुत्र को आता देखकर माता चेलना ने मुँह फेर लिया । कोणिक ने कहामाता ! क्या तुम अपने पुत्र को राजा के रूप में देखकर प्रसन्न नहीं हो ?' रानी चेलना ने रोषपूर्वक उत्तर दिया-“जिस परम वत्सल पिता ने अपने प्राणों की परवाह न करके पत्र-प्रेमवश पुत्र को जीवन दान दिया, वही पुत्र राज्य का लोभी बनकर पिता को बन्दी नाए. पिंजरे में डाल दे और स्वयं राजा बन बैठे तो कौन माँ ऐसे पितृघाती पुत्र का मुँह देखना चाहेगी ?" माता के संतप्त हृदय से निकले वचनों से कोणिक का हृदय बहुत दुःखी हो गया । उसने पूछा"पिताजी ने मुझे किस प्रकार जीवनदान दिया, उनके मन में क्या सचमुच मेरे प्रति प्रेम था ?" चेलना ने कहा-इतना गहरा पुत्र-प्रेम तो किसी विरले पिता के ही हृदय में होता है ? तू सुनना ही चाहता है, तो सुन । जब तू गर्भ में था, तब मुझे पति के हृदय का माँस खाने का एक अत्यन्त घणित दोहद उत्पन्न हुआ । इस दोहद की पूर्ति तो दूर, इसके विचार से ही मैं अत्यन्त लज्जित और दःखी रहने लगी । किसी तरह तुम्हारे पिताजी ने मेरी चिन्ता का कारण पता लगा लिया, और बहुत ही वीरता, साहस एवं चतुराई के साथ मेरा दोहद पूर्ण करवाया । तुम्हारा जन्म होते ही मेरे मन में तेरे प्रति अत्यन्त घृणा और दुर्विचार आये, कि ऐसी पितृघातक सन्तान को जन्म देने से ही क्या लाभ है ? मैंने जन्मते ही तुझे नगर के बाहर कूड़े के ढेर (उकरड़ी) में फिंकवा दिया, जहाँ एक मुर्गे ने माँस पिंड समझकर तुम्हारी यह अंगुली नोंच डाली । किन्तु तुम्हारे पिताजी को पता चलते ही उन्होंने मुझे उपालम्भ दिया, स्वयं दौड़कर गये, तुम्हें उठाकर लाये, ममतापूर्वक तुम्हारा लालन-पालन किया । तुम्हारी अंगुली में रस्सी और मवाद पड़ जाने से रात को तुम रोते थे । तब तुम्हारे पिताजी अपने मुँह में तुम्हारी अँगुली का मवाद, पीव चूसकर बाहर फेंकते और तुम्हारी पीडा दूर करते । यह सुनाते-सुनाते चेलना का हृदय भर आया । उसकी आँखें भीग गईं । माता के मुँह से यह वृत्तांत सुनते ही कोणिक पश्चात्ताप में फूट-फूट कर रो पड़ा । वह पिता के बंधन काटने के लिए कुल्हाड़ी लेकर कारागार की तरफ दौड़ा । कारागार में पड़े श्रेणिक ने कोणिक को हाथ में कुल्हाड़ी लिये आते देखकर सोचा-यह राज्य-लोभी दुष्ट पुत्र, अब मुझे जान से मारने के लिए आ रहा है । इस बुरी मौत मरने से तो अच्छा है, मैं स्वयं ही मर जाऊँ । यह विचार कर अंगूठी में जड़ित हीरे की कणी को चूस कर उसने पहले ही अपना प्राणान्त कर लिया । पिता की मृत्यु से कोणिक शोकमग्न, विह्वल सा हो उठा । पिता की याद कर वह फूट-फूट कर रो पड़ा । अनेक दिनों तक वह शोक में डूबा रहा । उद्यान आदि में बाहर कहीं घूमने पर कुछ शोक उत्थानिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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