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विराजमान हुए, फिर अपने आज्ञाकारी पुरुषों, राजसेवकों को बुलाकर इस प्रकार बोले
हे देवानुप्रियो ! तुम द्वारका नगरी में श्रृंगाटक यावत् चौराहों आदि सभी राजमार्गों पर जाकर मेरी इस आज्ञा की घोषणा (प्रचारित) करो कि -
“(हे द्वारकावासी नगरजनो ) इस बारह योजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक के समान द्वारका नगरी का सुरा, अग्नि एवं द्वैपायन के कारण एक दिन विनाश होगा, इसलिये हे देवानुप्रियो ! द्वारका नगरी में जिसकी भी इच्छा हो, राजा हो, युवराज हो, ईश्वर (स्वामी या मंत्री) हो, तलवर (राजा का प्रिय अथवा राजा के समान) हो, माडम्बिक (छोटे गांव का स्वामी) हो, कौटुम्बिक ( दो या तीन कुटुम्बों का स्वामी) हो, इभ्य सेठ हो, रानी हो, कुमार हो, या कुमारी हो, राजरानी हो या राजपुत्री हो, इनमें से जो भी भगवान अरिष्टनेमि के पास मुण्डित होकर यावत् दीक्षा लेना चाहता हो, उसको कृष्ण वासुदेव ऐसा करने की सहर्ष आज्ञा देते हैं ।
दीक्षार्थी के पीछे उनके आश्रित सभी कुटुम्बीजनों की भी श्रीकृष्ण वासुदेव यथायोग्य व्यवस्था करेंगे और ऋद्धि सत्कार के साथ उसका दीक्षा महोत्सव भी वे ही सम्पन्न करेंगे ।" इस प्रकार दो-तीन बार घोषणा कर मुझे वापिस सूचित करो ।
कृष्ण वासुदेव का आदेश पाकर उन आज्ञाकारी राजपुरुषों ने वैसी ही घोषणा दो तीन बार करके लौट कर इसकी सूचना कृष्ण को दी । Maxim 8 :
Having heard and listened to this description of his own most brilliant future Kṛṣṇa Vasudeva became very much glad. In the emotion of happiness he clapped his arms, moved three step backwards and roared like a lion, and then bowing down and praising-woshipping Arhat Aristanemi, rode on his own excellent elephant worthy for royal emblem and moving through the middle of Dwaraka came to his own palace.
प्रथम अध्ययन
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