________________
विवेचन-भगवान महावीर के जन्म के समय केवल क्षत्रियकुण्डपुर ही नहीं, परन्तु क्षणभर के लिए सारे जगत् में प्रकाश फैल गया। नारकीय जीव भी क्षणभर के लिए अनिर्वचनीय आनन्द व उल्लास का अनुभव करने लगते हैं।
जन्म से पूर्व त्रिशला महारानी के स्वप्नों का तथा गर्भ-परिपालन, गर्भ का संचालन बन्द हो जाने से आर्तध्यान, भगवान महावीर द्वारा मातृभक्ति सूचक प्रतिज्ञा, जृम्भक देवों द्वारा निधानों का सिद्धार्थ राजा के भवन में संग्रह, हिरण्यादि में वृद्धि के कारण माता-पिता द्वारा वर्द्धमान नाम रखने का विचार, सिद्धार्थ द्वारा हर्षवश पारितोषिक, प्रीतिभोज आदि विस्तृत वर्णन कल्पसूत्र, पृष्ठ ३६-८५ में देखना चाहिए।
Elaboration For a moment not only Kshatriya Kundapur but also the whole world was awash with a divine glow at the time of the birth of Bhagavan Mahavir. Even the hell-beings experienced an unprecedented happiness and joy for a moment. ____Refer to Illustrated Kalpasutra (p. 36-85) for the details about the post-conception divine dreams of queen Trishala, the pregnancy care, the stillness in the womb and the consequent resolve of Bhagavan Mahavir indicative of his devotion for his mother, storing of wealth in king Siddhartha's palace by Jrimbhak gods, increase in wealth and consequent idea of naming the newborn as Vardhaman, charities and feast by joyous Siddhartha etc.
भगवान का नामकरण
३५२. जओ णं पभिइ भगवं महावीरे तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिंसि गब्भं आहुए : तओ णं पभिइ तं कुलं विपुलेणं हिरण्णेणं सुवण्णेणं धणेणं धण्णेणं माणिक्केणं
मोत्तिएणं संखसिल-प्पवालेणं अईव अईव परिवड्ढइ।।
___ तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयमद्वं जाणित्ता : णिव्वत्तदसाहसि वोक्कंतंसि सुचिभूयंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेंति।
विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता मित्त-णाइ-सयण-संबंधिवग्गं उवनिमंतेत्ता बहवे समण-माहण-किवण-वणीमग-भिच्छुडग-पंडरगाईण विच्छड्डेति, विग्गोवेंति, विस्साणेति, दायारेसु णं दाणं पज्जाभाएंति। विच्छुड्ढित्ता, विग्गोवित्ता, विस्साणित्ता दायारेसु णं दाणं पज्जाभाइत्ता मित्त-णाइ-सयण-संबंधिवग्गं भुंजावेंति। मित्त-णाइ-सयणसंबंधिवग्गं भुंजावित्ता, मित्तणाइ-सयण-संबंधिवग्गेण इमेयारूवं णामधेज्जं कारतिआचारांग सूत्र (भाग २)
( ४९० )
Acharanga Sutra (Part 2)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org