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एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं। -त्ति बेमि।
॥ बीओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ॥ सत्तमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥
॥ पढमं चूला सम्मत्तं ॥ २८५. “हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने सुना है, भगवान से इस प्रकार कहा है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवन्तों के पाँच प्रकार का अवग्रह होता है-(१) देवेन्द्र-अवग्रह, (२) राजावग्रह, (३) गृहपति-अवग्रह, (४) सागारिक-अवग्रह, और (५) साधर्मिकअवग्रह।"
यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का समग्र आचार है। जिसके लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
-ऐसा मैं कहता हूँ। FIVE TYPES OF PLACES OF STAY
285. “O long lived disciple ! I have heard that Bhagavan has said—In this discourse of the Jina the sthavir bhagavants (a term of reverential address) have five types of places of stay (with reference to donors)—(1) Devendra avagraha, (2) Raja avagraha, (3) Grihapati avagraha, (4) Sagarik avagraha, and (5) Sadharmik avagraha.
This is the totality of conduct (including that related to _knowledge) for that bhikshu or bhikshuni. And so should he .. pursue carefully.
-So I say. विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में पाँच प्रकार के अवग्रह अवग्रहदाताओं की दृष्टि से बताये गये हैं।
देवेन्द्र अवग्रह का अर्थ है-दक्षिण भरत क्षेत्र में विचरने वाले मुनियों को जहाँ जंगल आदि स्थान पर अन्य कोई व्यक्ति अवग्रह-अनुज्ञा देने वाला न हो, वहाँ प्रथम देवलोक के अधिपति सौधर्मेन्द्र की आज्ञा ग्रहण करनी चाहिए। कहीं तृण आदि लेते समय या कहीं बैठते समय आचारांग सूत्र (भाग २)
( ३९२ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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