________________
改进进行进进进逃逃逃出了逃越油油了油 TOTAAYOGoatoPat
aayiyat
वर्तमान समय में साधु-साध्वी प्रायः सूती और ऊनी वस्त्र ही धारण करते हैं । किन्तु तरुण साधु के लिए एक ही वस्त्र धारण करने की प्राचीन परम्परा आज तो समाप्त जैसी ही दीखती है।
मणियों के लिए जो चार चादर धारण करने का विधान है, उनमें से दो हाथ वाली चादर उपाश्रय में ओढ़े तीन हाथ वाली भिक्षा काल में तथा स्थंडिल भूमि के लिए जाते समय ओढ़े तथा चार हाथ वाली चादर धर्मसभा आदि में बैठते समय ओढ़े । (बृहत्कल्प भाष्य, गा. ३६६१, ३६६३ वृत्ति निशीथ ६ / १०, १२ की चूर्णि में)
प्राकृत कोष के अनुसार 'जुगवं' का अर्थ है - समय के उपद्रव से रहित । आचार्य श्री आत्माराम जी म. के अनुसार तीसरे चौथे आरे में जन्मे हुए पुरुष |
बौद्ध श्रमणों के लिए छह प्रकार के वस्त्र विहित हैं - कौशेय, कंबल, कार्पासिक, क्षौम (अलसी की छाल से बना ), शाणज (सन से बना ) तथा भंगज ( भंग की छाल से बना ) वस्त्र । ब्राह्मणों (द्विजों) के लिए निम्नोक्त छह प्रकार के वस्त्र अनुमत हैं - कृष्ण मृगचर्म, रुरु (मृग विशेष ) चर्म, छाग - चर्म, सन का वस्त्र, क्षुपा (अलसी) एवं मेष (भेड़) के लोम से बना वस्त्र ।
भंगिय शब्द का अर्थ रेशमी वस्त्र भी होता है। एक रेशमी वस्त्र ऐसा भी आता है जिसके लिए कीड़ों को मारना नहीं पड़ता उसे टसर रेशम कहते हैं। आजकल रेशमी वस्त्र के सम्बन्ध में जो विस्तृत जानकारी मिल रही है उससे पता चलता है कि उस रेशम को तैयार करने में कीड़ों आदि की भयंकर हिंसा होती है, अतः ऐसा घोर हिंसाजन्य वस्त्र अहिंसक साधु के लिए धारणीय है या नहीं यह चिन्तन का विषय है।
आगम में वस्त्र के छह प्रकार बताये हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि मुनि ये छह प्रकार के वस्त्र धारण करे। यहाँ केवल वस्त्र की जानकारी मात्र देना ही अपेक्षित लगता है । वस्त्र सम्बन्धी चर्चा से प्राचीन काल की उन्नत शिल्पकला का भी पता चलता है कि आजकल के विकसित यंत्रों के अभाव में भी उस समय में कितने कलापूर्ण, बारीक वस्त्रों का निर्माण किया जाता था ।
Elaboration-Besides this Sutra, the details about the types of clothes acceptable to an ascetic are also available in Sthananga, Vrihatkalpa and other Sutras. The five types mentioned in Sthananga Sutra does not include Kshaumik and Toolakrit. In place of these is mentioned Tiridupatta. The details about the six mentioned here are as follows—
(1) Jangamik-That which is of the jangam (mobile beings ) origin. It is of two kinds of vikalendriya (two to four sensed beings) origin and of panchendriya (five sensed beings) origin.
आचारांग सूत्र (भाग २)
Jain Education International
( ३१२ )
For Private
Personal Use Only
Acharanga Sutra (Part 2)
www.jainelibrary.org