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वच्चंसी ति वा, अभिरूवं अभिरूवे ति वा, पडिरूवं पडिरूवे ति वा, पासाइयं पासाइए ति वा, दरिसणिज्जं दरिसणीए ति वा । जे यावऽन्ने तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं बुइया २ णो कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख भासेज्जा ।
१९३. साधु-साध्वी विभिन्न रूपों को देखते हैं उनमें यदि कोई गुण हो तो उस गुण से उनको सम्बोधित करना चाहिए। जैसे कि - ओजस्वी को ओजस्वी, तेजस्युक्त को तेजस्वी, वर्चस्वी - दीप्तिमान को वर्चस्वी । जिसकी यशः कीर्ति फैली हुई हो उसे यशस्वी, जो रूपवान हो उसे अभिरूप, प्रतिरूप को प्रतिरूप, प्रासाद - ( प्रसन्नता) गुण से युक्त को प्रासादीय, देखने योग्य को दर्शनीय कहकर सम्बोधित किया जा सकता है। इस प्रकार की निरवद्य, निर्दोष भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे कुपित नहीं होते । अतः साधु-साध्वी इस प्रकार की निरवद्य - सौम्य भाषाओं का विचार करके निर्दोष भाषा बोले ।
193. When a disciplined bhikshu or bhikshuni sees a variety of forms he should address according to the existing attributes or virtues. For example-A person who is strong should be called strong, one having valour should be called valorous and one who has influence should be called influential. One who has fame all around should be called famous, one who has charming personality should be called handsome, one who is a likeness of someone should be called so, one who is filled with joy should be called joyous, one who is attractive to look at should be called attractive. The use of such benign and correct terms of address does not make them angry. Therefore a prudent ascetic should thoughtfully use such benign and correct language.
१९४. भिक्खू वा २ जहा वेगइयाई रुवाई पासेज्जा, तं जहा- वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहावि ताइं णो एवं वइज्जा, तं जहा - सुकडे ति वा, सुठुकडे ति वा, साहुकडे ति वा, कल्लाणं ति वा, करणिज्जे ति वा । एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा ।
१९४. साधु-साध्वी यद्यपि अनेक प्रकार के दृश्य देखते हैं, जैसे कि उन्नत स्थान या खेतों की क्यारियाँ, खाइयाँ या नगर के चारों ओर बनी नहरें यावत् भवन आदि; इनके विषय में ऐसा नहीं कहें; जैसे कि यह अच्छा बना है, खूब अच्छा तैयार किया गया है,
भाषाजात : चतुर्थ अध्ययन
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Bhashajata: Fourth Chapter
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