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एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्षुणीए वा सामग्गियं जं सव्वद्वेहिं। -त्ति बेमि।
॥ बीओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ १६४. साधु या साध्वी को विहार करते हुए मार्ग में सामने से पथिक आते हुए मिलें और वे साधु से पूछे कि “आयुष्मन् श्रमण ! यह गाँव कितना बड़ा या कैसा है ? यावत् यह राजधानी कैसी है ? यहाँ पर कितने घोड़े, हाथी तथा भिखारी हैं तथा कितने मनुष्य निवास करते हैं ? क्या इस गाँव में यावत् राजधानी में आहार, पानी, मनुष्य एवं धान्य विपुल मात्रा में है या अल्प ही है?' इस तरह के प्रश्न पूछे जाने पर साधु उनका उत्तर न दे तथा उन प्रातिपथिकों से भी इस प्रकार की बातें न करे। अपितु मौन भावपूर्वक विहार करता रहे।
यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की साधुता की सर्वांगपूर्णता है। -ऐसा मैं कहता हूँ।
164. If an itinerant bhikshu or bhikshuni is approached by travellers on the way and asked—“Long lived Shraman ! How large and of what type is this village or city ? How many horses, elephants and beggars are there and what is its population ? Is there plenty of food, water, people and grains in this village or city ? Is there scarce food, water, people and grains in this village or city ?” When asked such questions the ascetic should neither answer such questions nor otherwise talk with those travellers on such topics. Instead he should continue his wandering silently.
This is the totality (of conduct including that related to knowledge) for that bhikshu or bhikshuni.
-So I say. विवेचन-इन सूत्रों में साधु के विहार में आने वाले विषम मार्ग से सावधान करने के लिए सूचनाएँ दी गई हैं। यदि अन्य निरापद मार्ग मिल जाये तो वैसे संकटास्पद मार्ग से जाने का निषेध भी किया है। सूत्र १६१ में वृत्तिकार ने इस प्रकार का विकल्प भी दिया है कि यदि किसी कारणवश ऐसे विषम मार्ग से जाना पड़े और ऊबड़-खाबड़ मार्ग में पाँव फिसलता हो तो स्थविरकल्पी श्रमण वृक्ष, लता आदि का सहारा लेकर मार्ग पार कर सकता है तथा जिनकल्पी मुनि सामने आते पथिक
आचारांग सूत्र (भाग २)
(२६० )
Acharanga Sutra (Part 2)
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