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________________ NET retrovidyo C 13 en १५३. वह साधु जल टपकते हुए या जल से भीगे हुए शरीर को एक बार या बार-बार हाथ से स्पर्श नहीं करे, न उसे एक या अधिक बार सहलाए, न उसे एक या अधिक बार घिसे, न उस पर मालिश करे और न ही उबटन की तरह शरीर से मैल उतारे। वह शरीर और उपधि को धूप में सुखाने का प्रयत्न भी न करे। जब वह यह जान ले कि अब मेरा शरीर पूरी तरह सूख गया है, उस पर जल की बूंद या जल का लेप भी नहीं रहा है, तभी अपने हाथ से शरीर का स्पर्श करे, उसे सहलाए, उसे रगड़े, मर्दन करे यावत् धूप में खड़ा रहकर उसे थोड़ा या अधिक गर्म भी करे। और फिर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। ____153. The ascetic should not touch, wipe, rub, massage or knead his body with his hands, once or repeatedly, while it is still dripping or wet. He should not even try to dry his body and burden in sun. When he finds that his body is absolutely dry, there is not even a drop or trace of water on it, only then he may touch, wipe, rub, massage or knead his body with his hands and even warm his body in sun. After that he may resume his itinerant way taking due care. विवेचन-इन आठ सूत्रों में नौकारोहण करने के पश्चात् आने वाले संकट की तथा उससे पार होने की विधि का वर्णन है। यथा-(१) नौकारूढ़ मुनि को नाविक आदि साधु की मर्यादा विरुद्ध कार्य करने के लिए कहें; (२) मौन रहने पर वे उसे भला-बुरा कहकर पानी में फेंक देने का विचार करें, तब मुनि उन्हें साधु का आचार समझाये। इस पर वे न मानें; (३) तब मुनि धर्म-विरुद्ध कार्यों को स्वीकार न करके चुपचाप बैठा रहे; (४) जल में फेंक देने की बात कानों २. में पड़ते ही मुनि अपने सारे शरीर पर वस्त्र लपेटने का प्रयास करे; (५) यदि जबर्दस्ती उसे जल में फेंक दे तो वह जल-समाधि लेकर शीघ्र ही इस कष्ट से छुटकारा पाने का न तो हर्ष करे, न ह ही डूबने का दुःख करे, न ही फेंकने वालों के प्रति मन में दुर्भावना लाए, न किसी प्रकार का प्रतिकार या मारने-पीटने का प्रयास करे। अपितु समाधिपूर्वक जल में प्रवेश कर जाये। ___ इस प्रसंग में आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने यह स्पष्ट किया है कि नदी पार करके किनारे पर आने के पश्चात् ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करने का कोई उल्लेख आगम में नहीं है, इससे यह स्पष्ट होता है कि आगम में बताई विधि के अनुसार नदी पार करने में कोई दोष या पाप नहीं है। किन्तु आगम में बताई विधि के अनुसार प्रवृत्ति नहीं की हो तथा मन-वचन-काय में थोड़ा-बहुत भी प्रमाद-संक्लेश-द्वेष आ गया हो तो उसकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करने की सर्या : तृतीय अध्ययन ( २५१ ) Irya : Third Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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