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ईर्या : तृतीय अध्ययन
आमुख
तृतीय अध्ययन का नाम 'ईर्या' है। + ईर्या' का अर्थ केवल गमन करना नहीं है अपितु साधु जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर किसी विशेष उद्देश्य से कल्प-नियमानुसार संयमभावपूर्वक यतना एवं विवेक के साथ
गमनादि चर्या/क्रियाएँ करता है तो उसे 'ईर्या' कहा जाता है। + स्थान, गमन, निषद्या और शयन इन चारों अर्थ में यहाँ 'ईर्या' शब्द का व्यवहार हुआ है। + किस द्रव्य के सहारे से, किस क्षेत्र में, कहाँ और किस समय में कब, कैसे एवं किस भाव से
गमन करना यह सब ईर्या अध्ययन में प्रतिपादित है। + धर्म और संयम के लिए आधारभूत शरीर की सुरक्षा के लिए पिण्ड-आहार और शय्या
स्थान की भाँति ईर्या की भी नितान्त आवश्यकता होती है। पिछले दो अध्ययनों में क्रमशः पिण्ड-विशुद्धि एवं शय्या-विशुद्धि का वर्णन किया गया है, वैसे ही इस अध्ययन में 'ईर्या-विशुद्धि' का वर्णन किया गया है, जिसमें (१) आलम्बन, (२) काल, (३) मार्ग, (४) यतना-इन चारों का विचार किया जाता है। यही ईर्या अध्ययन का उद्देश्य है। संघ, गच्छ तथा गण आदि की सेवा के लिए गमन करना आलम्बन-ईर्या है। गमन करने योग्य समय में गति करना काल-ईर्या है, सुमार्ग पर गमन करना मार्ग-ईर्या है। यतनापूर्वक
गमन करना यतना-ईर्या है। + ईर्या अध्ययन के तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में वर्षा काल में एक स्थान में निवास तथा
ऋतुबद्ध काल में विहार के गुण-दोषों का निरूपण है। + द्वितीय उद्देशक में नौकारोहण-यतना, थोड़े पानी में चलने की यतना तथा ईर्या से सम्बन्धित
अन्य वर्णन है। + तृतीय उद्देशक में मार्ग में गमन के समय अहिंसा, सत्य आदि की रक्षा करने के विषय में
मार्गदर्शन है।
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आचारांग सूत्र (भाग २)
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