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१२६. साधु-साध्वी को कभी सम शय्या मिले, कभी विषम मिले, कभी हवादार तथा कभी बन्द हवा वाला स्थान प्राप्त हो, कभी धूल से भरा उपाश्रय मिले, कभी धूल से रहित स्थान मिले, डाँस-मच्छरों से युक्त या डाँस-मच्छरों से रहित उपाश्रय मिले, इसी तरह कभी जीर्ण-शीर्ण, टूटा-फूटा, गिरा हुआ स्थान मिले, या कभी नया सुदृढ़ स्थान मिले, कदाचित् उपसर्गयुक्त शय्या मिले, कदाचित् उपसर्गरहित शय्या मिले। इस प्रकार की शय्या प्राप्त होने पर जैसी भी सम-विषम आदि शय्या मिले उसमें समभावपूर्वक रहना चाहिए। मन में जरा भी खेद या ग्लानि का अनुभव नहीं करना चाहिए।
यह शय्यैषणा-विवेक उस भिक्षु या भिक्षुणी का सम्पूर्ण भिक्षुभाव है, वह सब प्रकार से समाहित होकर विचरण करने का प्रयत्न करता है। ___ --ऐसा मैं कहता हूँ।
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ ॥ द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥
EQUANIMITY IN COMFORT AND DISCOMFORT ____126. A bhikshu or bhikshuni may sometimes get either a comfortable or an uncomfortable bed, an airy or a stuffy place, a clean or a dusty upashraya, a mosquito free or mosquito filled upashraya; in the same way he may sometimes get an old, dilapidated and ruined place or a new and well built place; or he may get a bed with or without nuisance. No matter whatever comfortable or uncomfortable bed or place he gets, he should live there with equanimity. He should not have even a trace of annoyance or dislike in his mind.
This prudence in search for place of stay is the totality (of conduct including that related to knowledge) for that bhikshu or bhikshuni. He endeavours to remain composed in all respects. -So I say.
॥ END OF LESSON THREE || II END OF SECOND CHAPTER 11
शय्यैषणा : द्वितीय अध्ययन
(२२५ )
Shaiyyaishana : Second Chapter
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