SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -- 33 . . - . . -.. इक्कारसमो उद्देसओ एकादश उद्देशक LESSON ELEVEN रुग्ण परिचर्या में माया का वर्जन ____७४. भिक्खागा णामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे र मणुण्णं भोयणजायं लभित्ता-से य भिक्खु गिलाइ, से हंदइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्खू णो भुंजेज्जा तुमं चेव णं भुजेज्जासि। से ‘एगइआ भोक्खामि' त्ति कटु पलिउंचिय २ आलोएज्जा, तं जहा-इमे पिंडे, इमे लोए, इमे तित्तए, इमे कडुयए, इमे कसाए, इमे अंबिले, इमे महुरे, णो खलु इत्तो किंचि, गिलाणस्स सयइ ति। माइट्ठाणं संफासे। णो एवं करेज्जा। तहाठियं आलोएज्जा जहाठियं गिलाणस्स सयइ ति, तं तित्तयं तित्तए ति वा, कडुयं २, कसायं २, अंबिलं २ महुरं २। ७४. कारणवश एक क्षेत्र में कोई साधु स्थिरवासी रहते हों। वहाँ ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधु आये हों और उन्हें भिक्षा में मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर (वहाँ स्थित मुनियों से) कहें-"अमुक भिक्षु जो ग्लान (रुग्ण) है, उसके लिए तुम यह मनोज्ञ आहार ले लो और उसे ले जाकर दे दो। यदि वह रोगी साधु न खाए तो तुम खा लेना।" उस भिक्षु ने (रोगी के लिए) वह आहार लेकर सोचा-'यह आहार मैं अकेला ही खाऊँगा।' यों विचारकर उस मनोज्ञ आहार को छिपाकर रोगी भिक्षु को दूसरा आहार दिखलाकर कहता है-“भिक्षुओं ने आपके लिए यह आहार दिया है। किन्तु यह आहार आपके लिए पथ्य नहीं है, क्योंकि यह रूखा है, तीखा है, कड़वा है, कसैला है, खट्टा है या अधिक मीठा है, अतः रोग बढ़ाने वाला है। इससे आपको कुछ भी लाभ नहीं होगा।" इस प्रकार कपट व्यवहार करने वाला भिक्षु मायास्थान का सेवन करता है। भिक्षु को ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। किन्तु जैसा जो आहार हो, उसे वैसा ही बताना चाहिए अर्थात् तिक्त को तिक्त यावत् मीठे को मीठा बताए। रोगी को स्वास्थ्य लाभ हो, वैसा पथ्य आहार देकर उसकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। PACTS SONGSCOOGLE CENSURE OF DECEIT WHILE NURSING 74. For some reason some ascetics stay permanently in some area and other itinerant ascetics arrive there. On getting good quality food as alms they offer (to the resident ascetics)—“Please take this good quality food and carry to give it to that particular Pari आचारांग सूत्र (भाग २) ( १४८ ) Acharanga Sutra (Part 2) ..1- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy