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कप्पइ बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहेत्तए। अभिकंखसि मे दाउं, जावइयं तावइयं पोग्गलं दलयाहि, मा अट्ठियाई।
से सेवं वदंतस्स परो अभिहटु अंतोपडिग्गहगंसि बहुअट्टियं मंसं परियाभाएत्ता णिहटु दलएज्जा। तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं
अणेसणिज्जं लाभे संते जाव णो पडिगाहेज्जा। ___ से य आहच्च पडिगाहिए सिया, तं णो हि त्ति वएज्जा, नो अणहित्ति वएज्जा। से तमादाय एगंतमवक्कमेज्जा, २ (ता) अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छगं भोच्चा अट्टियाइं कंटए गहाए से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, २ (त्ता) अहे झामथंडिल्लंसि वा जाव पमज्जिय पमज्जिय परिट्ठवेज्जा।
७२. गृहस्थ के घर पर आहार के लिए प्रवेश करने पर भिक्षु या भिक्षुणी को गृहस्थ यदि बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फलों के लिए आंमत्रण करे-“आयुष्मन् श्रमण ! क्या आप बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फल लेना चाहते हैं ?" इस प्रकार का कथन सुनकर भिक्षु विचार करके गृहस्थ से कह दे-"आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या बहन ! ऐसा बहुत-से बीज-गुठली से युक्त फल लेना मुझे नहीं कल्पता है। यदि तुम मुझे देना चाहते/चाहती हो तो इस फल का जितना गूदा (खाने योग्य भाग) है, उतना मुझे दे दो, शेष काँटे व गुठलियाँ नहीं।" ___ साधु द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ यदि अपने भाजन में से उक्त फल देने लगे तो भिक्षु जब उसी गृहस्थ के हाथ या पात्र में रखा हो तभी उस प्रकार के फल को अप्रासुक और अनेषणीय कहकर लेने से मना कर दे। इतने पर भी वह गृहस्थ आग्रह करके साधु के पात्र में डाल दे तो फिर न तो हाँ-हूँ कहे न धिक्कार कहे और न ही अन्यथा (भला-बुरा) कहे, किन्तु उस आहार को लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जीव-जन्तु, मकड़ी के जाले आदि से रहित किसी निरवद्य स्थान उद्यान में या उपाश्रय में बैठकर उक्त फल के खाने योग्य सारे भाग का उपभोग करे और फेंकने योग्य वीज, गुठलियों एवं काँटों को लेकर वह एकान्त स्थल में चला जाए, वहाँ दग्ध भूमि पर या किसी प्रासुक भूमि पर प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उन्हें परठ (डाल) दे।
72. When a bhikshu or bhikshuni, on entering the house of a layman in order to seek alms, is offered fruits with many seeds and stones with a request—"Long lived Shraman ! Would you like to take fruits with many seeds and stones ?" He should
आचारांग सूत्र (भाग २)
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Acharanga Sutra (Part 2)
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