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६२. यदि कभी भिक्षा के समय साधु को आते हुए देख वह गृहस्थ उसके लिए आधाकर्मिक आहार बनाने के साधन जुटाने लगे या आहार बनाने लगे और उसे देखकर भी वह साधु इस अभिप्राय से चुपचाप देखता रहे कि “जब यह आहार लेकर आएगा, तभी उसे लेने से प्रतिरोध कर दूंगा।" तो वह माया स्थान का स्पर्श करता है। साधु ऐसा न करे।
वह पहले से ही (आहार तैयार करते देखकर) उनसे कहे-“आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या बहन ! इस प्रकार का आधाकर्मिक आहार खाना या पीना मुझे नहीं कल्पता है अतः मेरे लिए न तो इसके साधन एकत्रित करो और न इसे बनाओ। ___उस साधु द्वारा ऐसा कहने पर भी यदि वह गृहस्थ आधाकर्मिक आहार बनाकर लाए
और साधु को देने लगे तो वह साधु उस आहार को अप्रासुक जानकर ग्रहण न करे। ___62. In case that layman sees the ascetic coming and proceeds to make arrangements for cooking or starts cooking adhakarmik food and even on seeing all this if the ascetic remains silent with the intention that he will object from accepting the food only when it is brought to him, he is resorting to deceit. An ascetic should not do so.
He should tell in advance (while the layman proceeds to cook)—“Long lived brother or sister ! I am not allowed to accept such adhakarmic food, therefore, please neither make arrangements for nor cook such food for me."
Even after this warning if that layman prepares, brings and offers such adhakarmik food, the ascetic should not take it considering it to be unacceptable.
विवेचन-सूत्र ६० से ६२ तक आधाकर्म दोष का प्रसंग है। आधाकर्म का अर्थ है-किसी खास साधु के लिए भोजन आदि पकाना। १६ प्रकार के उद्गम दोषों में यह पहला दोष है। साधु को यह दोष चार प्रकार से लगता है-(१) प्रतिसेवन-बार-बार आधाकर्मी आहार का सेवन करना, (२) प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहार के लिए निमंत्रण स्वीकार करना, (३) संवसनआधाकर्मी आहार का सेवन करने वाले साधुओं के साथ रहना, और (४) अनुमोदन-आधाकर्मी आहार का उपभोग करने वालों की प्रशंसा एवं अनुमोदना करना।
सूत्र ६१ में आहार का समय होने से पहले अपने पारिवारिक या परिचित व्यक्तियों के घरों में आहार के लिए जाने का निषेध है, उसके पीछे भी यही दृष्टि है कि वे स्नेह भाव या आचारांग सूत्र (भाग २)
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Acharanga Sutra (Part 2)
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