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________________ food, liquids, general food and savoury food). Therefore, we will offer them whatever food we have prepared for ourselves and later cook some more for us." Hearing such conversation or knowing about it from others the bhikshu or bhikshuni should refrain from taking any such food, even if offered, considering it to be faulty and unacceptable. ६१. से भिक्खू वा २ जाव समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे, से जं पुण जाणेज्जा गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संतेगइयस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तं जहा - गाहावइ वा जाव कम्मकरी वा । तहप्पगाराई कुलाई णो पुव्वमेव भत्ताए वा पाणाए वा णिक्खमेज्ज वा पविसेज्ज वा । केवली बूया - आयाणमेयं । पुरा पेहाए तस्स परो अट्ठाए असणं वा ४ उवकरेज्ज, वा उवक्खडेज्ज वा । अह भिक्खूणं पुव्वोवइट्ठा ४ जं णो तहप्पगाराई कुलाई पुव्वामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा णिक्खमेज्ज वा । सेत्तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अणावायमसंलोए चिट्ठेज्जा, से तत्थ काणं अणुपविसेज्जा २ तत्थियरयेरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारेज्जा । ६१. कोई भिक्षु या भिक्षुणी शारीरिक अस्वस्थता तथा वृद्धावस्था के कारण एक ही स्थान पर स्थिरवास रहते हों या ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले हों, किसी ग्राम में यावत् राजधानी में भिक्षाचर्या के लिए जब गृहस्थों के यहाँ जाने लगें, तव यदि वे यह जानें कि इस गाँव में यावत् राजधानी में किसी भिक्षु के पूर्व-परिचित ( माता-पिता आदि सम्बन्धीजन) या पश्चात् - परिचित सास-ससुर आदि गृहस्थ नौकर - नौकरानियाँ आदि श्रद्धालुजन रहते हैं तो इस प्रकार के घरों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार- पानी के लिए आए जाए नहीं । केवली भगवान कहते हैं - यह कर्मों के आने का कारण है। क्योंकि समय से पूर्व अपने घर में उन श्रमणों को आया देखकर वह गृहस्थ उनके लिए आहार बनाने के सभी साधन जुटाएगा, अथवा आहार तैयार करेगा । अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों द्वारा पूर्वोपदिष्ट यह उपदेश है कि वह इस प्रकार के परिचित कुलों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार- पानी के लिए आए जाए नहीं । किन्तु वह स्वजनादि या परिचित घरों को जानकर ऐसे एकान्त स्थान में चला जाए, जहाँ कोई आता-जाता और देखता न हो, ऐसे एकान्त में खड़ा हो जाए । भिक्षा का समय आचारांग सूत्र (भाग २) ( ११६ ) Acharanga Sutra (Part 2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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