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________________ AlHAIRAAAAA" ASSE-MANGALSULEDGE CHECSCOPDOG । DR...526iasisaisie . ___ (ग) अह पुणे जाणेज्जा-णो असंसट्टे, संसट्टे। तहप्पगारेण संसट्टेण हत्थेण वा ४ ॐ असणं वा ४ फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। ३३. (क) गृहस्थ के घर आहार के लिए जाने पर साधु या साध्वी किसी व्यक्ति को भोजन करते हुए दख, यदि वह गृहस्वामी, उसकी पत्नी, उसकी पुत्री या पुत्र, उसकी पुत्रवधू या गृहपति के दास-दासी या नौकर-नौकरानियों में से कोई भी हो तो, पहले अपने मन में चिन्तन करके फिर पूछे-“आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) या हे बहन ! इसमें से कुछ भोजन मुझे दोगे?' उस भिक्षु के ऐसा कहने पर यदि वह गृहस्थ अपने हाथ को, मिट्टी के बर्तन को, दर्वी (कुड़छी) को या काँसे आदि के बर्तन को सचित्त जल से या ठण्डे हुए उष्ण जल से एक बार धोए या बार-बार रगड़कर धोने लगे तो वह भिक्षु पहले ही उसे देखकर और विचारकर कहे-“आयुष्मन् गृहस्थ या बहन ! तुम इस प्रकार हाथ, पात्र, कुड़छी या बर्तन को सचित्त पानी से या कम गर्म किए हुए (सचित्त) पानी से एक बार या बार-बार मत धोओ। यदि तुम मुझे भोजन देना चाहती हो तो ऐसे-(हाथ आदि धोए बिना) ही दे दो।" ___भिक्षु द्वारा इस प्रकार कहने पर यदि वह गृहस्थ आदि शीतल या थोड़े गर्म जल से हाथ आदि को एक बार या बार-बार धोकर उन्हीं से अशनादि आहार लाकर देने लगे तो उस प्रकार गीले (पुरःकर्म-रत) हाथ आदि से लाए गये अशनादि चारों प्रकार ते आहार को अप्रासुक और अनेषणीव जानकर ग्रहण न करे। (ख) यदि साधु यह जाने कि दाता के हाथ, पात्र आदि भिक्षा देने के लिए नहीं धोए हैं, किन्तु पहले से ही गीले हैं; उस प्रकार के सचित्त जल से गीले हाथ, पात्र, कुड़छी आदि से लाकर दिया गया आहार भी अप्रासुक-अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। यदि यह जाने कि हाथ आदि पहले से भीगे (उदकार्द्र जल की बूंदें टपकती हैं) तो नहीं हैं, किन्तु संस्निग्ध गीले हैं, तो उस प्रकार के संस्निग्ध हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार आदि भी ग्रहण न करे। ___यदि यह जाने कि हाथ आदि जल से गीले या संस्निग्ध तो नहीं हैं, किन्तु क्रमशः सचित्त मिट्टी, क्षार मिट्टी, हड़ताल, हिंगलू (सिंगरफ), मेनसिल, अंजन, लवण, गेरू, पीली मिट्टी, खड़िया मिट्टी, सौराष्ट्रिका (गोपीचन्दन), विना छना (चावल आदि का) आटा, आटे का चोकर, वनस्पति के गीले पत्तों का चूर्ण आदि में से किसी से भी हाथ आदि संसृष्ट हैं तो उस प्रकार के हाथ आदि से लाकर दिया गया आहार आदि भी ग्रहण न करे। o आचारांग सूत्र (भाग २) ( ७८ ) Acharanga Sutra (Part 2) . RAPARDA.0.942DPDRAPRADAR. आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
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