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३१५. णच्चाणं से महावीरे णो वि य पावगं सयमकासी।
अण्णेहिं वि ण कारियत्था कीरंतं पि णाणुजाणित्था॥६१॥ ३१५. भगवान महावीर (आहार सम्बन्धी दोषों को जानकर) स्वयं पाप-आरम्भसमारंभ नहीं करते थे, दूसरों से भी नहीं करवाते थे और पाप करने का अनुमोदन भी नहीं करते थे।
315. (Being aware of faults related to food) Bhagavan Mahavir never indulged in violence (sinful activities), nor did he cause others to do so, nor approved of others doing so. __ ३१६. गामं पविस्स णगरं वा धासमेसे कडं परट्ठाए।
सुविसुद्धमेसिया भगवं आयतजोगयाए सेवित्था॥२॥ ३१६. भगवान ग्राम या नगर में प्रवेश करके दूसरे (गृहस्थों) के लिए बने हुए भोजन की एषणा करते थे। सुविशुद्ध (सर्वथा शुद्ध) आहार ग्रहण करके भगवान आयतयोग (संयत-विधि) से उसका सेवन करते थे। ___ 316. Entering a village or a town, Bhagavan sought food that was prepared for others (householders). Collecting pure (faultless) food he would eat with absolute discipline. ३१७. अदु वायसा दिगिछत्ता जे अण्णे रसेसिणो सत्ता।
घासेसणाए चिटुंते सययं णिवतिते य पेहाए॥६३॥ ३१८. अदु माहणं व समणं वा गामपिंडोलगं च अतिहिं वा।
सोवागं मूसियारं वा कुक्कुरं वा वि विहं ठियं पुरतो॥६४॥ ३१९. वित्तिच्छेदं वजंतो तेसऽप्पत्तियं परिहरंतो।
मंदं परक्कमे भगवं अहिंसमाणो घासमेसित्था॥६५॥ ३१७-३१८-३१९. भिक्षाटन के लिए जाते समय, वहाँ रास्ते में क्षुधा से पीड़ित कौओं तथा पानी पीने के लिए आतुर अन्य प्राणियों को बैठे हुए देखकर अथवा ब्राह्मण, श्रमण, गाँव के भिखारी या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को आगे मार्ग में बैठा देखकर उनकी आजीविका का विच्छेद न हो, तथा उनके मन में अप्रीति (द्वेष) या अप्रतीति (भय) उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर धीरे-धीरे चलते थे। किसी को जरा-सा भी त्रास न हो, इसलिए हिंसा न करते हुए आहार की गवेषणा करते थे। आचारांग सूत्र
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Illustrated Acharanga Sutra
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