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"तिरियभित्तिं चक्खुमासज्ज' इस पंक्ति में 'तिर्यभित्ति' का अर्थ है-तिरछी भीत। भगवतीसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि 'तिर्यभित्ति' का अर्थ करते हैं-प्राकार (परकोटा) वरण्डिका (बरामदा) आदि की भित्ति अथवा पर्वतखण्ड। बौद्ध साधकों में भी भित्ति पर दृष्टि टिकाकर ध्यान करने की पद्धति रही है। इसलिए तिर्यभित्ति का अर्थ 'तिरछी भीत' ध्यान की परम्परा के उपयुक्त लगता है जैसा कि कहा है
“निमेषोन्मेषकं त्यक्त्वा सूक्ष्म लक्ष्य निरीक्षयेत्।
पतन्ति यावट श्रूणि त्राटकं प्रोच्यते बुधैः॥" -घेरण्ड संहिता १/५३ । किन्तु वृत्तिकार आचार्य शीलांक के कथन अनुसार आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार किया है-पीछे से पुरुष प्रमाण (आदमकद) लम्बी वीथी (गली) और आगे से बैलगाड़ी के धूसर की तरह फैली हुई (विस्तीर्ण) जगह पर नेत्र जमाकर यानी दत्तावधान होकर चलते थे। ध्यान करते समय उनकी दृष्टि तिरछी भीत पर तथा मन अन्तर आत्मा में स्थिर रहता। योग ग्रंथों के अनुसार यह त्राटक ध्यान की पद्धति है।
भगवान की ध्यान-साधना में अनेक प्रकार के उपसर्ग एवं विघ्न आते जिसका संकेत इन गाथाओं में मिलता है। जैसे-भगवान महावीर जब पहर-पहर तक तिर्यभित्ति पर दृष्टि जमाकर ध्यान करते थे, तब उनकी आँखों की पुतलियाँ ऊपर उठ जातीं, जिन्हें देखकर बालकों की मण्डली डर जाती और बहुत से बच्चे मिलकर उन्हें 'मारो-मारो' कहकर चिल्लाते। वृत्तिकार ने 'हता हंता बहवे कंदिसु' का अर्थ किया है-“बहुत-से बच्चे मिलकर भगवान को धूल से भरी मुट्ठियाँ फेंककर ‘मार-मार' कहकर चिल्लाते, दूसरे बच्चे हल्ला मचाते कि देखो, देखो इस नंगे मुण्डित को, यह कौन है ? कहाँ से आया है?
भगवान प्रायः एकान्त शून्य स्थान देखकर ही ठहरते। किन्तु कुछ कामातुर स्त्रियाँ या पुरुष एकान्त की खोज में वहाँ भी आ जाते। वहाँ उनके अद्भुत रूप-यौवन से आकृष्ट होकर कुछ कामातुर स्त्रियाँ आकर उनसे काम-प्रार्थना करतीं, वे उनके ध्यान में अनेक प्रकार से विघ्न डालतीं।
भगवान को ध्यान के लिए एकान्त शान्त स्थान नहीं मिलता, तो धर्मशाला, पांथागार आदि ऐसे स्थानों पर ठहर जाते जहाँ गृहस्थों की भीड़ होती। वहाँ पर उनसे कई लोग तरह-तरह की बातें पूछकर या न पूछकर भी हल्ला-गुल्ला मचाकर ध्यान में विघ्न डालते, मगर भगवान किसी से कुछ भी नहीं कहते।
कोई उन्हें कठोर दुःसह्य वचनों से क्षुब्ध करने का प्रयत्न करता, तो कोई उन्हें आख्यायिका, नृत्य, संगीत, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध आदि कार्यक्रमों में भाग लेने को कहता, जैसे कि एक वीणावादक ने भगवान को जाते हुए रोककर कहा था-“दैवार्य ! ठहरो, मेरा वीणावादन सुन जाओ।" भगवान प्रतिकूल-अनुकूल दोनों प्रकार की परिस्थिति को ध्यान में विघ्न समझकर उनसे विरत रहते थे। उपधान-श्रुत : नवम अध्ययन
( ४६३ ) Upadhan-Shrut: Ninth Chapter
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